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उपदेशामृत इकट्ठे करके रखे थे वहाँ उसे ले गया और एक स्वर्णमोहर देकर कहा कि हमेशा आकर धर्मकथा सुना जाना । वह ब्राह्मण प्रतिदिन वहाँ जाता और धर्मकथा सुनाकर धन ले आता। दूसरा कोई भी व्यापार नहीं करता, फिर भी खूब पैसा खर्च करता । सब उसे पूछने लगे कि तुम पैसे कहाँसे लाते हो? उसने उन लोगोंसे सब बात बता दी, पर भला वे कैसे मानते? बाघ किसीको मारे बिना कैसे रह सकता है? फिर जाँच करने पर उन्हें यह बात सच्ची लगी। अतः सब उसकी ईर्ष्या करने लगे। एक व्यक्तिने उसके नाशका उपाय ढूँढ निकाला । उसने बाघके बारेमें बात करते हुए पूछा कि बाघ तुम्हें कभी नहीं मारेगा? उसने कहा कि कभी नहीं मारेगा। तब उसने कहा-आज तुम बाघको कुत्ता कहकर बुलाना । उस पोथी-पंडित ब्राह्मणको कुछ अनुभव नहीं था इसलिये उसने कहा कि कहूँगा। बाघ अपनी गुफाके पास सो रहा था, वहाँ जाकर उसने कहा-उठ कुत्ते । बाघको तो खूब गुस्सा आया पर वह अपनी गुफामें घुस गया। दूसरा कोई होता तो उसे मार डालता, पर इसे क्या करूँ? इसे भी शिक्षा देनी चाहिये यों सोचकर उसे एक स्वर्णमोहर देकर कहा-कल आओ तब एक कुल्हाड़ी अपने साथ लेते आना। दूसरे दिन ब्राह्मण कुल्हाड़ी लेकर आया तब बाघने कहा कि इसे मेरे सिर पर जोरसे मारो । ब्राह्मणने आनाकानी की, पर बाघने खूब हठ पकड़ ली तब उसने बाघके सिरमें चोट मारी। फिर बाघ गुफामें गया और मोहर लेकर आया और वह ब्राह्मणको देकर बोला कि अब थोड़े दिन बाद आना। थोड़े दिन बाद घाव भर गया। फिर ब्राह्मण आया तब बाघने कहा-सिरका घाव तो भर गया है पर उस दिन मुझे कुत्ता कहा था उसका घाव अभी नहीं भरा है। अब आज तो तुझे छोड़ता हूँ किन्तु फिरसे आया तो समझ लेना कि तुम्हारी मौत आ गई है।
यह कथा तो केवल दृष्टांतरूप है, किन्तु इससे समझना यह है कि सत्पुरुषके वचनकी ऐसी चोट लगनी चाहिये कि उसका घाव कभी भरे ही नहीं। दूसरे सब काम, धर्म, कर्तव्य सब भूल जाये, मिट जायें; पर सत्पुरुषके वचन ऐसे गहरे हृदयमें अंकितकर रखें कि कोई गाली दे फिर ऊपरसे कितनी ही दोस्ती करने आवे पर उसका दाग नहीं मिटता, वैसे ही वचनका दाग-रंग ऐसा लगना चाहिये कि उसका असर सदैव रहे, कभी जाय नहीं।
ता. १२-१-२६
['मूलाचार' के वाचनके समय] जब तक देव गुरु धर्मके विषयमें मूढ़ता रहती है तब तक सम्यक्त्व नहीं माना जाता। उपगृहनमें ऐसा कोई तत्त्व है कि जिससे समकितकी शुद्धि होती है।
सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्रमें ग्लानि, मंद उत्साह, अभाव, अनिच्छा उत्पन्न हो तो उसे धर्मभक्ति द्वारा दूर करनेसे समकितकी शुद्धि होती है। अन्यकी अपेक्षा स्वयं पर ही इस बातका ध्यान रख समकित शुद्ध करनेके लिये रत्नत्रयमें मंद उत्साह, अभाव, प्रमाद, ग्लानिको दूर करना चाहिये। जब अन्य अन्य वस्तुओंमें भावना रहती है, तब सम्यग्ज्ञान, सम्यक्दर्शन और सम्यक्चारित्रमें प्रमाद ही है। उन्हें दूर करनेकी आवश्यकता है। उन्हें दूर करनेसे समकितकी शुद्धि होती है।
स्थितिकरण!-परमकृपालुदेवने इस पामर जीवपर कितने उपकार किये हैं! कैसे कैसे मिथ्यात्वमेंसे छुड़ाकर कहाँ खड़ा किया है! सुखके निमित्तभूत उनके हित मित वचनोंसे कितना
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