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उपदेशसंग्रह-२
२७९ ऊपर आ गई। तब उस जैनने कहा-बाबाजी, अब बाहर आ जाइये, लींडी (विष्टा) ऊपर दिखाई दे रही है। यों लोगोंको तमाशा दिखाकर, जिसे आहार होता है उसे निहार होता ही है, यह सिद्धकर सारी पोल खोल दी।
अतः बाहर कैसे भी चिह्न दिखाई देते हों, पर जो सत्य है वही सत्य है । मैं समझता हूँ, मुझे जो समझमें आता है वही सत्य है और इसका कहना मिथ्या है, इन सब बातोंको छोड़कर, ज्ञानीने जो देखा है वही सत्य है, इस पर दृढ़ रहनेकी आवश्यकता है। कोई कहे कि मैं समझता हूँ तब भी भूल है। ज्ञानीकी छाप (मुहर) चाहिये। अपने आप मान लेना योग्य नहीं है।
ता.६-१-२६ प्रभु! जीव अभी थका कहाँ है? स्वच्छंद और स्वच्छंदमें ही अपनी कल्पनासे भागता ही रहता है। कुछ कहने जैसा नहीं है। यह कोई अपूर्व अवसर है, सावधान होने जैसा है। ‘ऐसा करूँ तो ऐसा होगा, ऐसा किया सो ठीक किया,' आदि नासमझी है। कर्म कहाँ छोड़नेवाले हैं? गुरुकी शरणसे हमें तो सातावेदनी हो तो भी अच्छी नहीं लगती तथा असाता भी वैसी ही है। यह कहाँ आत्माका धर्म है? कहीं भी अटकने जैसा नहीं है।
मुमुक्षु-दो दिन थोड़ी बीमारी थी तब तक तो मंत्रका स्मरण हुआ, पर तीसरे दिन विशेष पीड़ा हुई तब मंत्र-जापकी इच्छा, भावना तो रहती, पर 'बाप रे! अरेरे!' ऐसे बोल निकल जाते। ऐसा क्यों होता होगा?
प्रभुश्री-जो भावना रहती है वह भी कुछ कम नहीं है। अपारिणामिक ममता जैसा है। पर स्वास्थ्य ठीक होने पर अन्य कर्मोंका प्रवाह जो बंद हुआ था, वह फिर प्रारंभ हो गया न? यह बुला रहा है, यह अमुक वस्तु लाये, यह काम है, यह लेंगे न? इस संकल्प-विकल्पमें स्मरण भी रहना कठिन हो जाता है। अतः बीमारी भी हितकारक सिद्ध होती है। रोगके चले जाने पर आपको ऐसा लगता होगा कि ठीक हुआ; किन्तु फिर यह उपाधि आकर चिपक गई। बखेड़े बाँधे थे उन सबका ऋण चुकाना पड़ता है न? किन्तु जितना समय स्मरण और भावनामें बीता वह सार्थक हुआ।
हमारी तो अब वृद्धावस्था हुई, दुःख भी चलता रहता है । कलकी अपेक्षा आज बुखार विशेष है, फिर भी फालतू बकबककी तरह यह बोलना हो जाता है। कुछ भी अच्छा नहीं लगता । मृत्यु न हो तब तो कोई बात नहीं, पर ऐसा शरीर भी कितने दिन चलेगा? और अकेले हमारे लिये ही ऐसा कहाँ है ? किसीके लिये भी ऐसा कहाँ है कि इतने वर्ष तक तो मृत्यु आयेगी ही नहीं? घड़ीभरमें क्या से क्या हो जाता है! अतः हमें तो उनकी शरणसे किसीमें आनंद नहीं आता। एक देवने एक समकितीको वैरभावके कारण समुद्रमें फैंक दिया, जहाँसे उसका मोक्ष हुआ। ऐसी कुछ कथा है न? पर निमित्त सदैव अच्छे रखने चाहिये।
मुनि मो०-धारशीभाईके अंतकालके समय उनके समीप चौबीसों घंटे शुभ निमित्त रखे गये थे। कभी वाचन होता तो कभी मंत्रजाप होता था। ‘सहजात्मस्वरूप, सहजात्मस्वरूप, केवलज्ञानदर्शनमय सहजात्मस्वरूप' ऐसा जाप चालू ही रहता था। जब वेदनीय कर्मका तीव्र उदय होता है
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