________________
१२०
उपदेशामृत
ज्येष्ठ सुदी १४, शुक्र, १९८८ सहनशीलता, धैर्य, क्षमा, शांतिपूर्वक सहन करना, ये गुण ग्रहण करनेसे अच्छी गति प्राप्त होती है। वेदनीयसे घबराना, अकुलाना नहीं चाहिये । जो आती है वह जानेके लिये आती है, और 'इससे अधिक आओ' ऐसा कहनेसे अधिक आनेवाली नहीं है या “वेदनीय चली जाओ" कहनेसे जानेवाली भी नहीं है। 'नहीं बनवान नहीं बने, बनवू व्यर्थ न थाय; कां ए औषध न पीजिये, जेथी चिंता जाय?' इससे अनंतगुनी वेदना जीवने नरक-निगोदमें भोगी है, फिर भी उसका नाश नहीं हुआ। धूपके बाद छाया और छायाके बाद धूप आती है, इसी प्रकार वेदनाको रखना चाहेंगे तो भी नहीं रहेगी। जो होता है उसे देखते रहें। देखनेके सिवाय कुछ उपाय भी नहीं है। ___ आत्मा कभी मरता नहीं, जन्मता नहीं; बूढ़ा नहीं, युवान नहीं; स्त्री नहीं, पुरुष नहीं; बनिया नहीं, ब्राह्मण नहीं। फिर भी वह आठ प्रकारके कर्मोंसे घिरा हुआ भिन्न भिन्न रूपसे दिखाई देता है, किन्तु वह कभी भी देहरूप नहीं हुआ है। देहसे भिन्न, सदा सर्वदा चैतन्य-स्वरूप ही है, परम आनंदस्वरूप है। आत्माके सुखका वर्णन नहीं हो सकता। ऐसे अचिंत्य महिमावाले आत्माको ज्ञानीपुरुषोंने जाना है तथा संतपुरुषोंने बताया है, वह मुझे मान्य है। 'मुझे दुःख हो रहा है, मैं मर रहा हूँ' ऐसा मैं कभी माननेवाला नहीं । देहके संयोगसे देहके दंड देखने होंगे सो देख रहा हूँ। पर मेरा स्वरूप तो ज्ञानीने देखा है वैसा अनंत ज्ञानस्वरूप, अनंतदर्शनस्वरूप, अव्याबाध सुखस्वरूप
और अनंतशक्तिस्वरूप है। उसमें मेरी आस्था, श्रद्धा, मान्यता, प्रतीति, रुचि है। वही मुझे प्राप्त हो। आत्मासे भिन्न जो-जो संयोग मिले हैं वे सब छोड़नेके हैं और सब दुःखदायी है। साता या असाता दोनों वेदनीयकर्म हैं, किसी प्रकार इच्छनीय नहीं है; पर जो आ पड़े उसे समताभावसे सहन करना उचित है। ज्ञानीपुरुष भी समभावसे सहन करनेके अभ्याससे सर्व कर्मसे रहित होकर मोक्षको प्राप्त हुए हैं। चित्तको स्मरणमें रोकना चाहिये। ___"श्री सद्गुरुने कहा है ऐसे निपँथ मार्गका सदैव आश्रय रहे। मैं देहादिस्वरूप नहीं हूँ और देह, स्त्री, पुत्र आदि कोई भी मेरे नहीं है, मैं शुद्ध चैतन्यस्वरूप अविनाशी आत्मा हूँ, यों आत्मभावना करनेसे रागद्वेषका क्षय होता है।" ।
यौवन, नीरोग अवस्था और सुख-वैभव भोगनेके प्रसंगोंकी अपेक्षा ऐसे वेदनाके प्रसंग जीवके कल्याणके कारण होनेसे अमृत समान हैं, किन्तु जब तक दृष्टि परिवर्तन नहीं होता तब तक बाह्य वस्तुओंमें सुख लगता है और जब उन्हें छोड़नेका समय आता है तब कठिन लगता है। परंतु आत्माके सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र आदि गुण तो अविनाशी हैं, छोड़नेसे छूट नहीं सकते । मात्र उसका भान नहीं है। वह किसी संतके योगसे सुनकर, विचारकर, सम्यक् प्रकारसे मानने पर परिणाम बदलते हैं और जीवकी योग्यतासे यथातथ्य समझमें आता है। इस आत्मभावनासे आत्मगति होती है।
०
श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगास मनुष्यभव मिलना बहुत दुर्लभ है जी। उसमें भी धर्मकी जिज्ञासा और सत्पुरुषका समागम तो अत्यंत अत्यंत दुर्लभ है जी। क्योंकि इस कलिकालमें जीव केवल मायामें ही फँसा रहता है। जिससे
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org