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उपदेशसंग्रह-२
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यहाँ जो हैं, उन सबके धन्यभाग्य हैं, ऐसा समय मिलना दुर्लभ है! सारा संसार जन्म, जरा और मृत्युके त्रिविध तापसे जल रहा है। उसमें सत्संगका ऐसा योग मिलना दुर्लभ है। धर्मकी गरज किसे है? यहाँ इन सबको किसने बुलाया है ? किसी भाग्यशालीको ही जिज्ञासा उत्पन्न होती है। किससे कहें और कौन सुने? अन्यथा प्रभु, (गला बताकर) यहाँ तक भरा है! अब समय हो गया है, पधारिये।
सर्व धर्मके अंग जैनमें आ जाते हैं। किसी मार्गकी निंदा नहीं करनी है। जिस मार्गसे संसार मल दूर हो, ऐसी भक्ति करनी है। क्षमापनाका पाठ, बीस दोहे और 'मूल मार्ग' नित्य बोलें और हो सके तो अपूर्व अवसर भी।
ता. १-६-२३ 'श्रीमद् राजचंद्र' मेंसे वाचन
___“यह तो अखंड सिद्धांत माने कि संयोग, वियोग, सुख, दुःख, खेद, आनंद, अराग, अनुराग, आदि योग किसी व्यवस्थित कारणको लेकर होते हैं।"
(वचनामृत) प्रभुश्री-'व्यवस्थित कारण' क्या? मुनि मोहनलालजी-निर्माण हो चुका है।
प्रभुश्री-अशुद्ध चेतना-विभाव-मोहनीय कर्म, इन कारणोंसे संयोग वियोग आदिकी भावना हुई, वही क्रमशः दिखाई देती है।
मुमुक्षु-सत्पुरुष पर सच्ची श्रद्धा आ गयी है, ऐसा कब समझा जाय?
प्रभुश्री-यह आत्महितकारी प्रश्न है। इसका उत्तर यों दें कि ऐसा हो तब सच्ची श्रद्धा आयी मानना चाहिये।
(मुनि मोहनलालजीसे) विचारमें आये सो कहें। मुनि मोहनलालजी-सबको बोलने दें, फिर मुझे जो कहना है, वह कहूँगा। १. मुमुक्षु-कठिनसे कठिन आज्ञाको भी बिना संकोचके आराधन करनेको तैयार हों तब । २. मुमुक्षु-संसारकी अपेक्षा सत्पुरुष पर अधिक प्रेम आता हो तब। ३. मुमुक्षु-कुगुरु पर से श्रद्धा हट जाये और सत्पुरुष पर प्रेम आवे तब । ४. मुमुक्षु-रुचिपूर्वक संसार भोगनेकी अपेक्षा संसार भोगनेके भाव ही मंद पड़ जायें तब। ५. मुमुक्षु-जीव अनादिकालसे रागद्वेषके कारण भटक रहा है, वह मिटे तब ।
मुनि मोहन०-एक तो सत्पुरुषकी आज्ञाका आराधक बने और दूसरा अपने दोष टालेपदार्थका अज्ञान, परम दीनताकी कमी और संसारके अल्प भी सुखकी इच्छा-ये दोष टलें तब।
प्रभुश्री-सत्पुरुष है यह कैसे पता चले ? अन्यथा वासदके पास कुछ लोग कूएमें गिरे थे, ऐसा आज्ञाराधनका फल प्राप्त होता है।
मुनि मोहन०-सोनेकी परीक्षा जैसे कसौटी, छेदन और तपानेसे होती है, वैसे ही सत्पुरुषके प्रभावका स्वयंको पता लग जाता है।
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