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उपदेशसंग्रह-२
२६९ स्थापित कर देते। ऐसा नहीं करना है। बारहवें गुणस्थान तक साधक, साधक और साधक ही रहना कहा है। इधर-उधर देखा तो मर गये समझना। अब एक-एक यहाँ आकर कृपालुदेवके चित्रपटके पाट पर हाथ रखकर कहें कि 'संतके कहनेसे कृपालुदेवकी आज्ञा मुझे मान्य है।' जिसकी इच्छा हो वह आकर ऐसा कह जाय । उठो भाई! तुम्हें यह रुचिकर है या नहीं?
मुमुक्षु-हाँ प्रभु!
[फिर सब एकके बाद एक उठकर चित्रपटके समक्ष संकल्प कर प्रभुश्रीको नमस्कार कर बैठते गये। कुछ नये लोग भी वहाँ थे। उन्हें देखकर प्रभुश्री प्रसन्नतापूर्वक बोले-]
ये भद्रिक नये लोग भी साथ ही साथ लाभ ले गये। कौन जानता था? कहाँसे आ चढ़े ! टिके रहें तो काम बन जाये!
हमने जो कहा है, वह मार्ग यदि खोटा हो तो उसके हम जामिनदार है। परन्तु जो स्वच्छंदसे प्रवृत्ति करेगा तथा ‘यों नहीं, यों' कर दृष्टि बदलेगा तो उसके हम जिम्मेदार नहीं है। जिम्मेदारी लेना सरल नहीं है। पर इस मार्गमें भूल नहीं है । जो कोई कृपालुदेवको मानेगा उसे कुछ नहीं तो देवगति तो है ही।
पूना, ता. १८-१२-२४, गुरु प्रभुश्री-कितने ही भव किये होंगे। है उनका पता? पहाड़, वृक्ष, वनस्पति, तिर्यंचके-किसीका पता है? मरनेके बाद, इस देहमें इतने वर्ष रहे इसका कुछ भान रहेगा? मृत्युका भय नहीं लगा है।
मुमुक्षु-परमकृपालुदेवसे आपका परिचय, आपका पहलेका गृहस्थजीवन, आचार्यपद और उसके बादका चरित्र, आप प्रत्येक व्यक्तिको बीस दोहे और क्षमापनाकी आज्ञा देते हैं, उसका क्या रहस्य है? पहले मुमुक्षुको क्या जानना चाहिये? 'सनातन जैन' से क्या तात्पर्य है ? सनातन जैनीमें कैसे गुण, कैसा व्यवहार होना चाहिये? हमें मात्र अपना कार्य ही कर लेना चाहिये या धर्मप्रचार भी करना चाहिये? उसमें मुनि हो सकते हैं या नहीं? आदिका विस्तारसे वर्णन हो तो अनेक लोग वचनामृतका वाचन कर 'यह तो पढ़ लिया है' ऐसा कहते हैं, उन्हें यह सब जाने बिना केवल पढ़ लेनेसे ही समझमें नहीं आ सकता, यह बात ध्यानमें आये।
प्रभुश्री-प्रभु! यह तो कोई अपूर्व ग्रंथ बन जाये! पहला प्रश्न जो आपने पूछा है, वह महान पुण्यके उदयसे आपको सूझा है। काल तो प्रभु, बीत ही रहा है, किन्तु उसके निमित्तसे बिताया जाय तो सफल हो।
मुमुक्षु-धर्मके प्रचारमें लगें या अपना काम करके चले जायें-मौन रहें?
प्रभुश्री-स्याद्वाद मार्ग है, प्रभु! पूरे संसारको चमड़ेसे नहीं मढ़ा जा सकता, मात्र पाँवमें जूते पहने जाते हैं। मार्गमें काँटे हों उन्हें दूर करनेमें हानि नहीं। पर कृपालुदेवका वचन है, यदि दुपट्टा काँटोंमें उलझ जाये तो दुपट्टेके लिये आगे जानेसे रुकना नहीं चाहिये । निकले तो निकाल लेना, नहीं तो छोड़कर आगे बढ़ जाना चाहिये।
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