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उपदेशसंग्रह-२ "भगवान मुक्ति देनेमें कृपण नहीं है, पर भक्ति देनेमें कृपण है, ऐसा लगता है।"
(पत्रांक २८३) इसका अर्थ क्या समझें?
[फिर चर्चा हुई] 'अभी रुकना, रुकना' कहा था। पर जो कहना था वह चला गया। (फिर थोड़ी देर बाद कहा) मुक्ति अर्थात् छूटना, तू कर्म बाँध और मैं छोडूं ऐसा चलता रहता है। परंतु पात्रताके बिना भक्ति (आत्मा) प्रदान करनेमें कृपण है। ___ एक बालकृष्ण नामक जैन मुनि थे। एक बार सौराष्ट्रमें एक राजाको उन्होंने कहा कि वर्षा आयेगी। राजा उपाश्रयसे घर पहुँचे कि तुरत वर्षा हुई। अतः उस राजाकी उन पर श्रद्धा हो गयी और अपने राज्यमें शिकारकी मनाई कर दी।
दीक्षाके पहले उन महाराजसे हम मिले थे। वटामणमें वे कभी-कभी आते थे। देवकरणजी और हम साथमें थे। देवकरणजीको ऐसे महाराजकी वंदना करना अच्छा नहीं लगा, पर मैंने सरलभावसे नमस्कार किया था और उन्होंने आशीर्वाद दिया था कि तुझे ज्ञान होगा। ___ एक बार वटामणमें सभी अग्रणी वणिक और भावसार बैठे थे। तभी बड़े साहबके लिये सिपाही दो बकरे ले जा रहे थे। वे उनसे छीनकर पांजरापोलमें भेज दिये गये। सिपाहीको कुछ लालच दिया, पर पैसे कम पड़ जानेसे वे नहीं माने और दस पंद्रह लोगोंको पकड़कर साहबके तंबूके आगे ले गये। फिर सिपाही धमकाने लगे तब हमने एक युक्ति की, और सबने जोरसे चिल्लाना शुरू कर दिया। साहबने बाहर आकर पूछा कि यह क्या हो रहा है और इन्हें क्यों पकड़कर लाये हो? तब सबने कहा कि बकरे कहीं भाग गये होंगे इसलिये हमको पकड़ लाये है। यह सुनकर साहबने कहा 'इन्हें छोड़ दो' और सब छूट गये।
ता.३१-५-२३ "अभिनिवेशके उदयमें उत्सूत्रप्ररूपणा न हो इसे मैं ज्ञानियोंके कहनेसे महाभाग्य कहता हूँ।"
(वचनामृत) मुमुक्षु-अभिनिवेश अर्थात् आग्रह। एक शास्त्रीय अभिनिवेश और दूसरा लौकिक अभिनिवेश । प्रत्यक्ष ज्ञानी होने पर भी शास्त्रका बहुत सन्मान करना शास्त्रीय अभिनिवेश है और अपनी समझको सच्ची सिद्ध करनेका प्रयत्न करना लौकिक अभिनिवेश है।
प्रभुश्री-अपनी पकड़ (कल्पना)को सच्ची सिद्ध करनेसे मूलमार्गका विरोध होता है। ऐसा न हो तो महाभाग्य समझा जाता है। किसी साधुसे अमुक आचारका पालन न होता हो तब वह ऐसा कहे कि शास्त्रमें तो ऐसा है पर मुझसे वह पालन नहीं होता, तो उसे भाग्यशाली समझना चाहिये। मरीचिके भवमें महावीर स्वामीने अपने पास दीक्षाका आग्रह करनेवाले एक व्यक्तिसे कहा कि 'धर्म ऋषभदेवके पास है और यहाँ भी है,' यों मिश्र वचन कहनेसे उन्हें बहुत लंबे कर्म बाँधकर जन्मोजन्म परिभ्रमण करना पड़ा था। मुमुक्षु-अपनी इच्छा न हो फिर भी प्रभु, उदयके कारण ऐसा बोला जाय तो क्या हो?
[इसके समाधानमें पत्रांक ४०३का वाचन कराया]
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