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उपदेशामृत
प्रभुश्री - आप्तपुरुष बोध और सत्पुरुषकी दृष्टिसे अंतरात्मा बनने पर सच्ची श्रद्धा आयी, मानी जा सकती है। अंतरात्मा कब होता है? उसकी मान्यतानुसार मानने पर (सत्पुरुषके माननेके अनुसार मानने से ) - सत्पुरुषकी कृपादृष्टि पर रहनेसे । ऐसा कब होता है ? सत्पुरुषके बोधसे । मात्र बोधकी कचास है । अन्यथा बोधसे भी अंतरात्मा बना जा सकता है ।
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सत्पुरुषमें संसारका भाव हो ही नहीं सकता । सामान्य मुमुक्षु भी जब संसारके कार्यकी उपेक्षा कर सकता है, तब सत्पुरुषसे तो संसार दूर ही रहता है। वज्रभींत जैसा भेद उसे हो जाता है-उसे मिथ्या निरंतर मिथ्या ही लगता है । तब वह जानबूझकर उसमें कैसे लिप्त हो सकता है ?
१ "एह दृष्टिमां निर्मळ बोधे, ध्यान सदा होय साचुं; दूषण रहित निरंतर ज्योति, रत्न ते दीपे जाचुं."
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अशातना और अशुचिसे सावधान रहें । जहाँ समाधिमरणकी तैयारी करने आते हों, वहाँ किसीको विक्षेप हो ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिये । हमारे निमित्तसे किसीके मनमें खेद हो तो वह हिंसा है। छोटे बच्चोंको भक्तिमें लेकर आनेसे वे मलमूत्र करें या आवाज करके बोधमें अंतराय करें, जिससे महादोष लगता है । प्रभु ! छूटनेका प्रयत्न करते बंधन होता है । इसके बजाय दूर बैठकर नाम-जपन करे या भक्ति भावना करे तो उसका फल कम नहीं है । परमकृपालुदेवने हमें कितना विरह सहन कराया था, वह तो हमारा मन जानता है । मात्र उनके पास बैठकर भक्तिभजन ही करनेकी भावना थी। 'हम अब शुद्धिका पालन करे या न करें तो भी चलेगा।' ऐसा नहीं चल सकता | शुद्धि अशुद्धि सब समान हो तो विष्टा और भोजन पास-पास रखकर देखें !
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संसार स्वप्न जैसा है । जनकराजाको 'यह सत्य या यह सत्य ?' ऐसा हुआ था, तब उसका निबटारा अष्टावक्रके बिना नहीं हुआ था । सब भवाईके वेष या मृगजलके समान मिथ्या है। उसीको प्राप्त करने सभी व्यर्थ दौड़ लगा रहे हैं ।
'श्रीमद् राजचंद्र' में से वाचन
“यह तो अखंड सिद्धांत मानें कि संयोग-वियोग, सुख-दुःख, खेद-आनंद, अराग- अनुराग, इत्यादि योग किसी व्यवस्थित कारणको लेकर होते हैं।" ( वचनामृत)
१. मुमुक्षु- कुछ लोग कहते हैं कि स्त्री स्त्रीके रूपमें और पुरुष पुरुषके रूपमें ही जन्म लेते हैं। जैसे कि बाजरी बोने पर बाजरी और गेहूँ बोने पर गेहूँ उगते हैं ।
प्रभुश्री - आत्माके लिये तो सभी पर्याय समान है। जैसी भावना हो वैसे जन्म मिलते हैं । खेतमें बाजरी बोनेसे बाजरी और गेहूँ बोनेसे गेहूँ उगते हैं। वैसे ही जीव खेत जैसा है। आत्मा जैसे कर्म बाँधता है वैसा फल मिलता है । पुरुषवेद बाँधे तो पुरुष होता है, स्त्रीवेद बाँधे तो स्त्री होता है ।
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१. देखें संदर्भ-आठ योग दृष्टिकी सज्झायमें, सज्झाय ७ / ४ ( यशोविजयजी )
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