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उपदेशसंग्रह-१
१९९ मैं सामायिक करके आया, मैं उपाश्रय गया-ऐसा किया, वैसा किया। और वहाँसे अवकाश मिला तो फिर अन्य सब नहीं करनेका करता है! 'बेकार बैठा बरबादी करे' बरबादी हुई है नामसझीसे ।
“सद्गुरुना उपदेश वण, समजाय न जिनरूप;
समज्या वण उपकार शो? समज्ये जिनस्वरूप." । बाप बनकर खा सकते हैं क्या? नहीं खा सकते, किंतु बेटा बनकर खा सकते हैं। ऐसा लोग कहते हैं न? यह तो संघवी हैं, बड़े हैं, समझदार हैं, जानकार हैं, क्या हम नहीं समझते? यह सब मान-पूजा है, अहंकार है। धर्म कहाँ है? .
"धरम धरम करतो जग सहु फिरे, धरम न जाणे हो मर्म, जिनेश्वर; धर्म जिनेश्वर चरण ग्रह्या पछी, कोई न बांधे हो कर्म, जिनेश्वर
धर्म जिनेश्वर गाउं रंगशुं." गुफामें हजारों वर्षका अंधेरा हो, पर दीपकके आते ही उजाला। यह कैसी अद्भुत बात है! चमत्कार है!
१. मुमुक्षु-जिनेश्वरके चरण अर्थात् क्या है कि जिससे कर्म न बाँधे?
२. मुमुक्षु-चरणका अर्थ यहाँ ज्ञानीपुरुषकी यथार्थ आज्ञाका आचरण-आराधन । तदनुसार हो तो कर्म नहीं बँधते । उससे विमुख हो तो बँधते हैं।
१. मुमुक्षु-चरण ग्रहण करनेके पश्चात् 'प्रवचन अंजन जो सद्गुरु करे देखे परम निधान, जिनेश्वर' यह अंजन क्या है?
प्रभुश्री-गुरुगम आया तो उसमें सब आ गया, पर मर्म समझमें नहीं आया। १. मुमुक्षु-मर्म क्या?
प्रभुश्री-योग्यताकी कचास है। चरणमें ज्ञानीका आचरण आदि कहा, तो भी अभी बैठ। यथातथ्य पहचान होने पर यदि वह उसके उपयोगमें आया, यथातथ्य बोध हुआ और उसे ग्रहण किया तो वही आत्मा। यह कचास है उसकी योग्यताकी इसलिये कह नहीं सकते । खबर नहीं है, पहचान नहीं है।
१. मुमुक्षु- “छे देहादिथी भिन्न आतमा रे, उपयोगी सदा अविनाश ।'
प्रभुश्री- “एम जाणे सद्गुरु उपदेशथी रे, कह्यं ज्ञान तेनुं नाम खास ।"खास, खास। ऐसे पुरुषोंको कौन मानेगा! तेरे कर्म फूटे हुए हैं! बात किसकी थी? बात आत्माकी थी पर आत्माकी पहचान तो हुई नहीं। वह है, ज्ञानीके पास है। क्षणभर भी उससे अलग नहीं।
१. मुमुक्षु-“सत्पुरुष वही है कि जो रात दिन आत्माके उपयोगमें है; जिसका कथन शास्त्रमें नहीं मिलता, सुननेमें नहीं आता, फिर भी अनुभवमें आ सकता है; अंतरंग स्पृहारहित जिसका गुप्त आचरण है; बाकी तो कुछ कहा नहीं जा सकता।"
प्रभुश्री-उसे पहचाननेवाला कौन? धन्यभाग्य जो उसे जानेगा। कहनेकी बात एक आत्मा। अन्य सब देखा, परंतु आत्मा नहीं देखा। और, अन्य जो कुछ देखा उसे भी आत्माने ही देखा।
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