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उपदेशामृत ऐसी बात है, अतः अब तेरी देरमें देर है, हो जा तैयार । ज्ञानीके वचन हैं कि श्वासोच्छ्वासमें कोटि कर्म क्षय होते हैं और अंतर्मुहूर्तमें केवलज्ञान होता है। यह बात अपने हाथमें है। हाथ पकड़कर वापस छोड़ देता है। अतः हाथ बराबर पकड़ना चाहिये, तब हाथमें आयेंगे। खूबी पकड़नेकी है; ठीकसे पकड़ लिया तो काम बन गया! अब पूछते क्या हो? चोलमजीठका रंग लग गया तो पक्का हो गया। तब आस्रवमें संवर होता है। ऐसी जिसकी खूबी है! बहुत काम होता है। सारा भवसमुद्र तर जाता है। पर कुछ कमी है, इसलिये कहा नहीं जा सकता।
मुमुक्षु-कृपालुदेवने हमें आठ दृष्टिमेंसे एक दृष्टिकी गाथाका अर्थ सुनाया है। अतः अब आप कुछ प्रदान करें।
प्रभुश्री-कृपालु ही प्रदान करेंगे। सब है, मात्र समझकी कचास है। अभी बाल अवस्था है, नहीं तो कुछ कहना नहीं पड़ता। कौन करेगा? स्वयं ही करना पड़ेगा। आत्मा है, नित्य है, कर्ता है, भोक्ता है, मोक्ष है और मोक्षका उपाय है। इतनी स्पष्ट बात कही है फिर भी विष नहीं उतरता; उतरना चाहिये। ये सब संबंध अनंत बार हो चुके हैं वह कहाँ सच है? झूठेको सच माना उससे काम नहीं चलेगा। भले ही कुछ भी हो पर एक सच है उसे मान । अतः गरजमंद होना चाहिये। अभी गरज नहीं जागी है। जो है वह है, जो नहीं है वह नहीं है। जो जैसा है वैसा है। 'एगं जाणइ से सव्वं जाणइ' अतः जानना पड़ेगा, मानना पड़ेगा और करना पड़ेगा। ये सब मेरे साक्षात् आत्मा है, ऐसी दृष्टि नहीं हुई है। ‘मात्र दृष्टिकी भूल है, भूल गये गत अह ।' उतावल करनेसे काम नहीं चलेगा। वे तो कहाँ है? वे खोलकर बतायेंगे। शास्त्रका मर्म तो समझना पड़ेगा और समझने पर ही छुटकारा होगा।
ता.९-१-३६,शामको पत्रांक ७८३मेंसे वाचन
जीवको सत्पुरुषका योग मिलना तो सर्व कालमें दुर्लभ है, उसमें भी ऐसे दुःषमकालमें तो वह योग क्वचित् ही मिलता है। विरले ही सत्पुरुष विचरते हैं। उस समागमका लाभ अपूर्व है, यों समझकर जीक्को मोक्षमार्गकी प्रतीति कर, उस मार्गका निरंतर आराधन करना योग्य है।"
'यह तो मैं जानता हूँ, मैं समझता हूँ, मैंने सुना है' इसने ही बुरा किया है। सच्ची पकड़ हो तो उससे देवगति प्राप्त होती है। इतना शक्तिशाली यह वचन है। यही संग करने जैसा है। 'लिया सो लाभ' । भारी बात कही! पर विश्वास कहाँ है ? किसको होता है? उसकी बहुत जरूरत है, बेड़ा पार हो जाय ऐसा है-भले ही पापकर्म करता हो पर सुलटा हो जायेगा, अज्ञान मिटकर ज्ञान हो जायेगा। सच्चा आत्मार्थी तो कभी नहीं भूलेगा। ज्ञानीने देखा वही मुझे मान्य है, वही मेरा आत्मा । कहाँसे मिलेगा? जिसके भाग्य पूर्ण होंगे उसे ही यह बात जमेगी। जैसे मजीठका रंग, फट जाये पर फीका न पड़े, मजीठका रंग जाये नहीं। इतना कहना है कि सबका हित हो। मानना न मानना आपका काम है, हमें तो ज्ञानीका कथन सुनाना है। जहाँ आत्मार्थ होता हो वहाँ आत्मार्थमें समय लगायें, बरछी-भाले बरसते हों तो भी वहाँ जाये, पर असत्संगमें मोतियोंकी वर्षा हो रही हो तो भी न जायें।
____ "विरले ही सत्पुरुष विचरते हैं। उस समागमका लाभ अपूर्व है, यों समझकर जीवको मोक्षमार्गकी प्रतीति कर, उस मार्गका निरंतर आराधन करना योग्य है।"
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