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उपदेशामृत सब इसके हाथमें है, यह करे सो होता है। आस्रवमें संवर और संवरमें आस्रव करता है। जो बाँधे उसको बाँधता है और छोड़े उसको छोड़ता है। जिसने आत्माको जाना, उसे फिर पंचायत कैसी? सब छोड़ना है। यह मेरे द्वारा ग्रहित है ऐसा कहाँ लगता है? प्रमाद और आलस्यमें सब खोया है। आत्माकी संभाल किसने ली है? उसकी गिनती नहीं है। तब सिर फोड़! जाने दे, बेटा होकर खाया जा सकता है। 'मेरे बापकी पत्नी! ला, पानी पिला' ऐसा कहे तो नहीं पिलायेगी किन्तु, 'माँजी, पानी पिलाइये' ऐसा कहे तो पिलायेगी। अतः इस जीवको चेतना चाहिये। बात अमूल्य चमत्कारी है! अर्थ सुना नहीं। सत्संग तो अमृत है! जिसका भाग्य होगा वही समझ सकेगा। क्या करना है, इसका ही पता नहीं है। कहिये, क्या करेंगे?
१. मुमुक्षु-'सुहगुरुजोगो तव्वयणसेवणा आभवमखंडा |
प्रभुश्री-तुंबीमें कंकड़ ! मुँहसे बोल गये बस, अर्थका पता नहीं है। इसकी जिज्ञासा ही कहाँ है? बाल-बच्चोंकी चिन्ता है। पर इसकी चिंता कहाँ है ? बच्चा बीमार हो तो डॉक्टरके पास भागता है, पाँच पचास रुपये खर्च करता है। पर आत्माके विषयमें कुछ नहीं किया। “हुं कोण छु? क्याथी थयो? शुं स्वरूप छे मारूं खरुं?" जैसे भाव वैसे प्रभु मिलते है। जैसा भाव करे वैसा फल मिलता है। बाह्यभाव हो तो क्या मिलेगा? चेत जा. समझा तभीसे प्रभात । कुछ कर ले। ऐसा अवसर फिर कहाँ मिलेगा? कुछ कर लेना चाहिये । करे उसके बापका। संक्षेपमें कहते हैं-सत्संग करना भूले नहीं । इसमें लाभ है। थोड़ा किया होगा, तो भी उसका फल मिलेगा। सार ग्रहण करें। जिससे हित हो वह करें। मनुष्यभवमें लक्ष्य लेना चाहिये । मनुष्यभव प्राप्त कर जिससे आत्माका हित हो वैसा सत्संग करना चाहिये । जीवको पता नहीं है। काम बन जाये ऐसा सुअवसर है। ये ऐसी वैसी बातें नहीं हैं। मनुष्यभव होगा तो सुनोगे, कौओ-कुत्ते क्या सुनेंगे? अन्य भवमें क्या सुनेंगे? एक मात्र असावधानी और प्रमादने बुरा किया है। अन्य सब करता है पर धर्मके लिये नहीं करता। उसमें प्रमाद, आलस्य होता है।
२. मुमुक्षु-जीवका शीघ्र मोक्ष कैसे हो? प्रभुश्री-प्रश्न कठिन है! जानकारी होनी चाहिये । शीघ्र मोक्ष कैसे हो?
३. मुमुक्षु-अमेरिका जानेके लिये विमानमें बैठे तो शीघ्र जाता है। इसी प्रकार सत्पुरुषार्थरूपी विमानमें बैठे और गुरु अनुकूल हों तो शीघ्र मोक्ष पहुँचता है।
प्रभुश्री-पहले संसारको छोड़े तो मार्ग शीघ्र मिलता है। पहले जानकारी होनी चाहिये । गाड़ीमें बैठकर जायेंगे, विमानमें बैठकर जायेंगे, ये सब बातें करते हैं। पर ऐसा होता नहीं। यह मोक्ष कैसा है इसका पता है? बातोंसे बड़े नहीं बनते ।
“सद्गुरुना उपदेश वण, समजाय न जिनरूप;
समज्या वण उपकार शो? समज्ये जिनस्वरूप." समझनेसे छुटकारा है। पहले सुनना होगा, फिर करना होगा। सब जानते हैं, तब माल लेते हैं न? बिना जाने कोई ढबाढब ले लेता है क्या? यह बात तो स्वयंको ‘असंग अप्रतिबद्ध' सुनेंगे तब
१. सद्गुरुका योग, उनके वचन और सेवा भवपर्यंत मुझे अखंड प्राप्त हो।
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