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उपदेशामृत प्रभुश्री-बात बहुत भली की। थोड़ा भी विचार नहीं किया। आपने क्या कहा वह थोड़ा जानना है।
मुमुक्षु-आत्माका कर्त्तापद तीन प्रकारसे हैं-“परमार्थसे स्वभावपरिणति द्वारा आत्मा निजस्वरूपका कर्ता है। अनुपचरित अर्थात् अनुभवमें आने योग्य, विशेष संबंधसहित व्यवहारसे यह आत्मा द्रव्यकर्मका कर्ता है। उपचारसे घर, नगर आदिका कर्ता है।" अब आत्मा उस निज स्वरूपका कर्ता हुआ तो परस्वरूपका कर्त्ता नहीं है, जिससे पूर्वबद्ध निर्जरित होता है। अब दूसरी इच्छा क्या है? पर ऐसे ही होता रहता है।
प्रभुश्री-जैसे वृक्षको पहले पानी देते हैं तब फल मिलते हैं। इतना तो पहले करना ही पड़ेगा। परमार्थकी बात है, इससे बात चली है। प्रारंभमें यह न हो तो कुछ भी नहीं है। जड़को क्या कहेंगे? चेतनको कहेंगे। कौन है? आत्मा है। इसमें परिवर्तन नहीं हो सकता। इसका भान और पहचान नहीं यही भूल है। मुमुक्षु- "चेतन जो निजभानमां, कर्ता आप स्वभाव;
वर्ते नहि निजभानमां, कर्ता कर्म-प्रभाव." प्रभुश्री-इतना ही है ऐसा जानना पड़ेगा। अर्थात् ऐसा भाव आना चाहिये । आये बिना कैसे देखेगा? इतने ऊपर बैठे थे उन्हें दिखायी दिया, नीचेवालेको कैसे दिखायी देगा?
मुमुक्षु-ऊपर तो आना है, पर छाती पर जो भार पड़ा है, वह दूर नहीं होता।
प्रभुश्री-कभी भी उसे दूर किये बिना छुटकारा है? वह मिलना चाहिये। यदि वह दूर करनेवाला मिल जाय तो दीप प्रगटे, देर नहीं। यही कुछ कमी है। इसीसे यह रुका हुआ है। इसे प्राप्त करने पर काम होगा, अन्य कोई उपाय नहीं । इसका उपाय क्या है ?
मुमुक्षु-सत्संग और सत्पुरुषका योग बारंबार करना अर्थात् सत्पुरुषार्थ करना।
प्रभुश्री-एक नयकी अपेक्षासे इसे स्वीकारना होगा। पर जीवने अनंत बार यह सब किया है, पर कुछ कसर रही है। अर्थात् तुम्हारी बात निकल गयी-अवश्य कमी है। यह तो बात प्रत्यक्ष सुनी हुई है, अनुभूत की हुई है उसे कह रहा हूँ। यह जो बैठे हैं उन्हें निकट आनेकी आवश्यकता है। मरजिया होना पड़ेगा। एक मरजिया सौको भारी। 'जो सिर काटेगा वह माल पायेगा।' । ____ मुमुक्षु-"समीपमुक्तिगामी जीवको सहज विचारमें ये सप्रमाण होने योग्य हैं।" अर्थात् समीप तो आना ही पड़ेगा।
प्रभुश्री-बात तो यही करनी है। अन्यत्र पाँव रखनेकी आवश्यकता ही कहाँ है? अन्यत्र पैर रखनेकी आवश्यकता क्या है? अन्यत्र दृष्टि डालनेकी क्या आवश्यकता है? जो है सो है। उन्होंने आत्माको जाना है यही तो भिन्नता हुई है। यह अन्य सब जो देख रहे हैं, उसमें भेद पड़ा। यह दृष्टि नहीं। दृष्टिको बदलना चाहिये इसका पता नहीं है। इतना आ जाय तो उसका बल कितना अधिक बढ़ जायेगा? तब कुछ शेष नहीं रहेगा। ऐसा करनेसे लाभ होता है-बदल गया! सब जो था वह बदल गया! समझको ही समकित कहा है। परिवर्तन न हुआ तो समकित कैसा? यों बंधन होता हो
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