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उपदेशामृ
प्रकाशक ऐसा यह आत्मा कभी भी विश्वरूप नहीं होता, सदा-सर्वदा चैतन्यस्वरूप ही रहता है । विश्वमें जीव अभेदता मानता है यही भ्रांति है ।" - श्रीमद् राजचंद्र
प्रभुश्री - तेरी नींव कहाँ है ? वह अभी हिल रही है ।
“छे देहादिथी भिन्न आतमा रे, उपयोगी सदा अविनाश, मूळ० जाणे सद्गुरु-उपदेशथी रे, कह्यं ज्ञान तेनुं नाम खास, मूळ० जे ज्ञाने करीने जाणियुं रे, तेनी वर्ते छे शुद्ध प्रतीत, मूळ० कह्युं भगवंते दर्शन तेहने रे, जेनुं बीजुं नाम समकित मूळ०
म आवी प्रतीति जीवनी रे, जाण्यो सर्वेथी भिन्न असंग, मूळ० वो स्थिर स्वभाव ते ऊपजे रे, नाम चारित्र ते अणलिंग, मूळ०"
सुने बिना, जाने बिना क्या कहेगा ? सुना तो हो गया । तुरत खड़ा हो जाये । दीया जले ऐसा है । 'सवणे नाणे विन्नाणे ।' यह तो मंत्रके समान है । सामान्य बना दिया है कि इसका तो मुझे पता है, मैं जानता हूँ, मैंने सुना है। यह तो दुर्भाग्य ! इस (आत्मा) को तो ज्ञानीने देखा है । अन्यको नहीं कहा जा सकता । जिसने देखा उसने देखा । उसके कारण ही सब कुछ है । 'गोकुल गाँवको पिंड़ो ही न्यारो !” सबसे अलग होना पड़ता है । अतः वह करनेको तैयार हो जा । शस्त्र तेरा अपना ही है, और वह काम आयेगा । खड़ा हो जा । तेरी देरीसे देर है । यह तो कृपालुका पिलाया हुआ पानी है, तब हमें पता लगा । सब योग्यताकी कमी है । सब आवरण हैं और वे तो कर्म हैं-आठ कर्मके बंधन है। अन्य नहीं मनवाना है, अन्यकी बात नहीं करनी है । इतना कहूँगा कि जीवका ही दोष है । यह जो इतना जानते हैं, वह भी उन्हींके प्रतापसे । सबसे अलग है एक समकित और वही मोक्ष ले जानेवाला है । व्यवहारमें जैसे कोई बड़ा नगरसेठ जैसा व्यक्ति हो और कोई आदमी फाँसी पर लटका हुआ हो, वहाँ उनकी गाड़ी निकली और दर्शन हुए तो तुरत वह फाँसीसे छूट जाता है, ऐसा है । यहाँ तो रुष या तुष कुछ भी नहीं है । तुम्हारी देरमें देर है । हम सब सात साधु थे । जिसके भाग्यमें था उसे मिला। जो जानता है, वही अनुभव करता है । अतः यही कर्तव्य रहा । और यही करना है । अब दूसरे मार्ग पर नहीं जाना है और जा भी कैसे सकते हैं ? जा ही नहीं सकते, और दूसरा मार्ग अब है ही कहाँ ? सभी बातें बस वे ही हैं। स्थान-स्थान पर आत्मा, आत्मा और आत्मा ही । फिर कुछ और मानो तो तुम जानो । यही कर्तव्य है ।
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- श्रीमद् राजचंद्र
२. मुमुक्षु - कृपालुदेवने सब मुनियोंमेंसे आपको कहा कि, “मुनि ! तुम आत्मा देखोगे ।” अतः किसी पर कृपा करियेगा ।
प्रभुश्री- बात तो सही है ! यह बात सबने सुनी और हमने भी सुनी। इस जीवको समझ है और वह इस आत्माको है । ये सब जो यहाँ बैठे हैं, सभी आत्मा ही हैं न? सब सुनते हैं, पर सबका सुनना समान नहीं है । कितना अंतर पड़ा है ? अतः उठ, वह तो आना ही चाहिये । इसके सुननेसे, इसको समझनेसे और इसकी श्रद्धा होने पर ही छूटनेकी वार्ताकी आत्मासे झंकार उठेगी । दो अक्षरमें मार्ग है! कोई भाविक आत्मा ये वचन सुनकर प्रतीति और श्रद्धा रखेंगे तो तिलक हो गया। फिर क्या चिंता है ? वह भी किसके हाथमें है ? अपने । अतः तैयार हो जाओ। यह किसी
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