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उपदेशसंग्रह-१
२२९ प्रभुश्रीजी-आप चतुर हैं, समझदार है, अतः समझिये । जनकविदेहीके पास शुकदेवजी आये तो कहा 'स्वच्छ होकर आ।' फिर वे नहा धोकर आये तब भी कहा कि 'अभी और स्वच्छ होकर आ.' यों सात बार आये फिर भी कहा कि 'अभी स्वच्छ होकर आ।' वैसे ही यही समझेगा और यही करेगा। मंगल कार्य किसे प्रिय नहीं होता? अतः तैयार हो जाइये। सामग्री तो चाहिये, और वह सामग्री तो हाथमें है।
ता. १५-१-३६, सबेरे
[आठवीं दृष्टि] इसमें इतना सारा बल है? वह कोई ऐसी-वैसी वस्तु है? आत्मा अनंत सत्ताका स्वामी है और वही करेगा। उसे जाने तो दीपक और समकित कहलाता है और जाने बिना तो सब कच्चा है। यह जो जीव इच्छुक होगा उसे होगा। इतने अमूल्य वचन कानमें भी कहाँसे पड़े ? आत्मा अनंत शक्तिका स्वामी है, केवलज्ञानवाला है! ऐसा है वह । कोटि कर्म क्षय हो जाते हैं। यह उसीकी शक्ति है। कृपालुदेवका वचन हमें याद है। हमसे कहा-अब क्या है? अब अन्य बातें किसलिये करनी हैं ? अतः अब जागिये, जागृत होनेसे ही छुटकारा है। वस्तुका विचार नहीं हुआ। महान् पुण्यकी वृद्धि होने पर ही वह विचार होता है। अनंतकालसे आवरणके कारण भान भूला है। आत्माकी सत्ता तो सबके पास है, पर यदि रुकावट है तो वह आवरणके कारण ।
१. मुमुक्षु-सब बोझ उतारकर हलका हो जाये तब न? ऐसा आप ही कहते हैं। प्रभुश्री-मुझे लगता है कि कुछ धक्का लगना चाहिये। १. मुमुक्षु-हम तो उसीकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। प्रभुश्री-केवलीने, ज्ञानीने धक्का मारा तभी काम हुआ।
१. मुमुक्षु-"प्रवचन अंजन जो सद्गुरु करे देखे परम निधान, जिनेश्वर ।" है अवश्य । उसे ही ढूँढ निकालना है।
प्रभुश्री-“व्यवहारसें देव जिन, निहचेसें है आप।" प्रतीति और विश्वासकी कमी है। क्यों है न? बस एक यही ऐसा नहीं हुआ, 'हो जाय तो काम बन जाय । ज्ञानी इस प्रवचन अंजनको कुछ भिन्न प्रकारसे ही भोगते हैं, अन्यके समान नहीं। कुछ रंग बदलता अवश्य है। अच्छी हवामें बैठे हों तो अच्छी हवा आती है। धन्यभाग्य कि ऐसा वीतरागका मार्ग हाथ लगा! १'अपूर्व वाणी ताहरी, अमृत सरखी सार' ऐसा पद है न? १. मुमुक्षु- २"अनंतकाल हुं आथड्यो, न मळ्या गुरु शुद्ध संत;
दुषम काळे तुं मळ्यो, राज नाम भगवंत." प्रभुश्री-यह काल है, तो क्या आत्माने ऐसा निश्चय किया है कि न मिलूँ ? नहीं मिलेगा ऐसा कुछ है क्या? मिल सकता है, पर तैयार होने पर ।
१. तेरी अपूर्व वाणी अमृत समान साररूप है। २. अनंतकालसे मैं संसारमें भटकता रहा हूँ, किन्तु कोई सद्गुरुकी प्राप्ति नहीं हुई। पूर्व पुण्यसे इस दुषम हुंडावसर्पिणीकालमें तू 'राज' नामका भगवान मिला है।
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