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उपदेशामृत दिन इस पर उनकी कृपा होगी तब काम बनेगा। उनके बिना एक तृणके दो टुकड़े भी नहीं होंगे। वह है तो सब है। इसीके कारण बोलते-चलते हैं; शेष सब धूल है! जड़ है, आत्मा नहीं। कचास है योग्यताकी । उससे रुका है।
२. मुमुक्षु-गुरुकी नावमें बैठ जायें। प्रभुश्री-ठीक कहते हैं। उन्हींका उद्धार हुआ है। ऐसा न किया हो तो नहीं जा सकते। १. मुमुक्षु-बैठ जाये तो न? साँकल जुड़ जाये तो न? प्रभुश्री-तेरह मनका 'तो' अड़ गया। छोड़े बिना छुटकारा नहीं है, छोड़ना ही पड़ेगा।
१. मुमुक्षु-"अनादि स्वप्नदशाके कारण उत्पन्न हुए जीवके अहंभाव-ममत्वभावकी निवृत्तिके लिये ज्ञानीपुरुषोंने इन छह पदोंकी देशना प्रकाशित की है। उस स्वप्नदशासे रहित मात्र अपना स्वरूप है, ऐसा यदि जीव परिणाम करे तो सहज मात्रमें वह जागृत होकर सम्यग्दर्शनको प्राप्त हो। सम्यग्दर्शनको प्राप्त होकर स्वस्वभावरूप मोक्षको प्राप्त करे।"
प्रभुश्री-जिसे पता लगा, फिर मिला और जानकार हुआ तो काम बना। जिन्हें न मिले हों उन्हें जानकार होना चाहिये । कृपालुदेवने मुझे दृढ़ करा दिया कि तुम कहीं नहीं जाओगे, सब तुम्हारे पास आयेंगे। अब क्या रहा? अतः यह सब व्यवहार करते हैं सो आनंदके लिये! जो होनहार है वह बदलनेवाला नहीं और बदलनेवाला है वह होनहार नहीं।
१. मुमुक्षु-हमें 'तब फिर अन्य उपाधिके वश होकर प्रमाद क्यों करना चाहिये ?'
प्रभुश्री-प्रमादको धारण न करना यह तो उसका वीर्य (पुरुषार्थ) कहा गया है। उस वीर्यको तो नहीं छोड़ना है। जो ज्ञानी होता है, उसे कैसी भी व्याधि पीड़ा आने पर उसकी मान्यता अन्यथा नहीं होती। यह तो सहज समझनेके लिये बता रहा हूँ। ऐसा कहा हो कि मांस नहीं खाना, मदिरा नहीं पीना, ब्रह्मचर्यका पालन करना, तो क्या उसका पालन नहीं करना? इसके बिना कोई अन्य बात हो सकती है? अतः उस वस्तुमें फर्क नहीं हो सकता। कृष्ण महाराजको देवने युद्धमें कहा कि पीठसे पीठ होकर लड़ें । तब उन्होंने कहा कि, “जा, जा, ऐसे नहीं, मुँहके सामने आ जा।' लड़ाई मुँहके सामने होती है।
छोड़ो, छोड़ो और छोड़ो ऐसा कहा, तो क्या आत्माको छोड़ना है?
१. मुमुक्षु-नहीं, नहीं। जो पर है उसे छोड़ना है। आत्मा तो कहीं छोड़ा जा सकता है? वह तो है ही।
ता. १५-१-३६, शामको पत्रांक ७१०का वाचन
“आत्मा सच्चिदानंद" मुमुक्षु-जीव आत्मप्राप्तिके लिये बहुत प्रयत्न करता है, किंतु सत्पुरुषके आश्रयके बिना वह प्राप्त नहीं होता और उल्टी कल्पना होती है। अतः सत्पुरुष यहाँ आत्माका लक्ष्य करवाते हैं।
तू सत्-चित्-आनंदरूप है, तू एक है, अन्य कोई तेरे साथ नहीं है, यों ज्ञानीपुरुष आत्माका निश्चय कराते हैं। ऐसी दृढ़ प्रतीति हो तब सम्यग्दर्शन होता है।
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