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उपदेशसंग्रह - १
२४५
कमाई हो नहीं सकती और लाख रुपयेकी मर्यादा करे तो यह व्यर्थ है । समझे बिना कल्याण नहीं होता । संक्षेपमें सब कुछ पर है, अपना नहीं ।
२. मुमुक्षु - परको छोड़ना और अपना करना । ३. मुमुक्षु - “शुद्ध, बुद्ध, चैतन्यघन, स्वयंज्योति सुखधाम; बीजुं कहिये केटलूं ? कर विचार तो पाम. '
"
प्रभुश्री - यह सब छोड़िये । हजारों बातें हैं, पर संक्षेपमें एक आत्मा। हजारों-लाखों बार बातें की, पर वह नहीं । 'आतमभावना भावतां जीव लहे केवलज्ञान रे ।" यह हो तो समझमें आता है ।
मनुष्यभव प्राप्त किया है तो जब तक शरीर रहे तब तक अच्छा निमित्त बनाये रखना, छोड़ना नहीं। इससे लाभ होगा। यह निमित्त प्राप्त किया तो सुननेको मिला । मनमें भावना करें कि 'सुनता रहूँ, सुनता रहूँ ।' 'मैं जानता हूँ, मैं समझता ऐसा होता है, पर अलौकिक दृष्टिसे समझा नहीं है । क्या करे ?
ता. २७-१-३६, सबेरे
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कमी प्रमादसे है । प्रमादने बुरा किया है । पुरुषार्थ किया होता तो कल्याण हो जाता । पूर्वकालमें ज्ञानी मिले थे, किन्तु पुरुषार्थके बिना वह योग निष्फल गया । पुरुषार्थकी कमी है। यहाँसे अन्यत्र जाना हो तो कदम उठाने पड़ते है, पुरुषार्थ करना पड़ता है । कौवे - कुत्तेके जन्ममें भी आत्मा है । पूर्वकृत पुण्यसे मनुष्यभव मिला है, अतः कहते हैं कि चेतिये ! अब पुरुषार्थकी आवश्यकता है। स्त्री, बच्चे, मान, बड़प्पनकी जैसी चिंता है वैसी इसकी नहीं है । यही बुरा करनेवाला, अनर्थ करनेवाला है । अतः चेतिये! ऐसी वैसी बात नहीं है, चिंतामणि रत्न है । "वीतरागका कहा हुआ परम शांत रसमय धर्म पूर्ण सत्य है, ऐसा निश्चय रखना ।" वीतराग कथित ऐसा अन्य कुछ नहीं है। श्वेतांबर, स्वामीनारायण, दिगंबर आदि भले हों, पर वीतरागके मार्गकी बात है । " तू चाहे जिस धर्मको मानता हो, मुझे उसका पक्षपात नहीं है ।” “जीवके अनधिकारित्वके कारण तथा सत्पुरुषके योगके बिना समझमें नहीं आता ।" इन वचनोंको तीर समझें; घोटकर पी जायें। 'यह तो मैं जानता हूँ', ऐसा करता है । पर जा मूर्ख ! यह तो चिंतामणि है । ऐसी वैसी बात नहीं है । सत्पुरुषके बिना समझमें नहीं आता - यही कमी है, यही अवगुण है, यही भूल है, यही अंधेरा है, जो कहे सो । समझ आनी चाहिये । इससे भव सुधरेगा । तेरा काम बनेगा । बहुत हित होगा। क्या यह बात विचारणीय नहीं है ? 'मैं जानता हूँ' इसका त्याग कर दे । खोद खोदकर वचन लिखे हैं । पता नहीं है । 'तुंबीमें कंकर!' यह बात ऐसी वैसी नहीं है। तैयार हो जाओ । भले ही टुकड़े हो जाये, चाहे जो हो, पर तैयार हो जाओ । यहीं मर जाना है। लाखों रुपये चले जाये, देहत्याग हो जाये, पर तैयार हो जाओ। यह पैसेवाला है, समझदार है, पर धूल पड़े इसमें ! समझदार कैसा ? इसमें किसी पर विषमभाव नहीं है । यह बात करनेकी है । अहो ! क्या यह मामूली कमाई है ? चिंतामणि है ! किससे बुरा हुआ ? परभावसे । परभाव जैसा अन्य कोई शत्रु नहीं है । इस समय पड़े हुए हो तो खड़े हो जाओ। यह तुम्हारी दृष्टिके समक्ष प्रत्यक्ष है कि कुछ किया तो कुत्ते-बिल्ली के जन्मसे छूटकर मनुष्य जन्म प्राप्त किया या नहीं ? उससे तो अच्छा है न ? यह
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