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उपदेशामृत ३. मुमुक्षु-जो रागयुक्त हो उसे बंध होता है और जो वैराग्यवाला हो वह तो उलटा मुक्त होता है। यह भगवानने शास्त्रका सार कहा है। अतः तू राग मत कर ऐसा समयसारमें एक स्थान पर कहा है।
प्रभुश्री-एकका भाव नहीं है, और एकका भाव है, इसमें अंतर हुआ। भावके बिना बंध नहीं है। क्रिया करे पर बंध तो भावसे होता है। मुख्य बात सब भाव पर है। भगवानने कहा है कि भावसे बंधन होता है।
____ 'भावे जिनवर पूजिये, भावे दीजे दान ।
भावे भावना भाविये, भावे केवलज्ञान ।।" अतः भाव बड़ी वस्तु है। जो जैनधर्मका जानकार हो उसे कहा जाय कि यह धर्म । जीव, अजीव, पुद्गल, पर्याय आदि कहें तो वह समझेगा; अन्यको कहेंगे तो नहीं मानेगा। वैसे ही मान्यतामें अंतर होता है। जिसे पकड़ा है उसे छोड़ना पड़ेगा। सभी जीवमात्रको बंधन मान्यताके अनुसार होता है, ऐसा नक्की हुआ । जैसे भाव परिणाम, वैसा बंधन और वैसी ही लेश्या होती है तथा वैसा ही भव होता है-चार गति लेश्याके अनुसार होती है। चतुर समझदार लोग तो देखते हैं कि इसका ऐसा परिणाम है। चार गतिके परिणाम जान लेते हैं। समझ चाहिये, उसमें कमी है। अन्य सब संबंध है। 'जो जाना वह नहीं जानूँ और जो नहीं जाना वह जानूँ।' यहाँ गुत्थी सुलझ गई। बात मान्यताकी है। अतः 'पवनसे भटकी कोयल' 'पंखीका मेला'। फिर सब अपने अपने मार्ग पर । अकेला आया और अकेला जायेगा, अतः चेत जा।
ता. १२-१-३६, सबेरे [यति जिनचंद्र और मुनि मानसागर आये हुये थे। प्रभुश्रीको उनकी पहचान करवाकर नाम बताये]
प्रभुश्री-आत्मा है-इस जीवको पहचान करनी है। जिनचंद्रसे कहिये, आपने वचनामृत पढ़ा है? जिन०-थोड़ा बहुत पढ़ा है।
मान०-मैने नहीं पढ़ा। [पत्रांक ३७ का वांचन]
मुमुक्षु-(मानसागरसे) इसमें क्या समझमें आता है ?
मान०-जगतमें अनंत बार भ्रमण किया, पर शुद्ध सम्यक्दृष्टि नहीं हुई, जिससे परिभ्रमण हो रहा है।
मुमुक्षु-अनादिकालसे वह दृष्टि क्यों प्राप्त नहीं हुई? कारणसे कार्य होता है और व्रतप्रत्याख्यान सब छूटनेके लिये करते हैं, फिर क्या रह गया?
मान०-संसारकी वासना अनंत कालसे लगी हुई है, उसे दूर करनेका तो यह प्रयत्न है। पर कर्मकी लहर आती है उसका ध्यान नहीं रहता। वह रहे तो कुछ हो सकता है। बाह्यभाव छोड़कर अंतरभावमें आये तो हो जाय ।
मुमुक्षु-फिर कारणकी आराधनामें भूल क्या है?
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