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उपदेशामृत ४. मुमुक्षु-'परंतु' कहा अर्थात् वहाँ परिणमन होना चाहिये; वह बाकी है।
१. मुमुक्षु-मैं तो कृपालुदेवके वचन कहता हूँ : “जो निरंतर भाव-अप्रतिबद्धतासे विचरते हैं ऐसे ज्ञानीपुरुषके चरणारविंदके प्रति अचल प्रेम हुए बिना और सम्यक्प्रतीति आये बिना सत्स्वरूपकी प्राप्ति नहीं होती, और आने पर अवश्य वह मुमुक्षु, जिसके चरणारविंदकी उसने सेवा की है, उसकी दशाको पाता है।"
प्रभुश्री-यह बात तो रोम रोम सत्य है, कौन मना करता है? १. मुमुक्षु-तब क्या करें? क्या करना चाहिये? सिरपर स्वामी रखकर परिणमन करें। २. मुमुक्षु-सत्पुरुषके वचनमें श्रद्धा करें, अन्य नहीं ।
प्रभुश्री-कुछ उत्थापन करना है? सद्धा तो परम दुल्लहा । यहाँ भी कुछ शेष रह गया है। भावके बिना परिणमन नहीं होता।
___ "भावे जिनवर पूजिये, भावे दीजे दान,
भावे भावना भाविये, भावे केवलज्ञान."
'आतमभावना भावतां जीव लहे केवळज्ञान रे.' १. मुमुक्षु-आत्मभावना करने पर भी दूसरा ही होता है, वह नहीं होता; तब क्या करें? प्रभुश्री-ऐसा कहते हैं कि समझकर गा, तभी काम होगा।
__"मारूं गायुं गाशे, ते झाझा गोदा खाशे;
समजीने गाशे ते वहेलो वैकुंठ जाशे." (नरसिंह महेता) १. मुमुक्षु-अनादिकालसे मिथ्यात्वके, अज्ञानके भाव हैं, वे कैसे छूटेंगे? प्रभुश्री-पर वह मिल जायेगा। . १. मुमुक्षु-तो बस, यही चाहिये, अन्य नहीं। काम हो गया।
प्रभुश्री–ज्ञानियोंने जीवका अवलंबन जाना। पहले भाव बदलते हैं, यह बड़ी बात है। उससे सब होगा। 'भावे जिनवर पूजिये' जिनवर ही आत्मा है, उसे पहले लिया। तथा गीत गायें तो भी इसके ही, इसे जानकर गाये। बरातमें दूल्हेके गीत गाये जाते हैं, वैसे ही यहाँ आत्मा प्रथम है, उसीके गीत गाने हैं, यह बात ज्ञानीको पता है, वे जानते हैं। ये सब भाई, बहन, वृद्ध, युवान, बालक सभी आत्मा हैं, पर जाना नहीं। “मात्र 'सत्' मिला नहीं, 'सत्' सुना नहीं और 'सत्'की श्रद्धा नहीं की तथा इसके मिलने पर, इसको सुननेसे और इसकी श्रद्धा करनेसे ही छूटनेकी बातका आत्मासे गुंजार होगा।" पहले आया आत्मा। जड़ और चेतन, जैसे हैं वैसे दो भेद जानने होंगे। जीव-अजीव तत्त्व शास्त्रमेंसे पढ़ता है, अभ्यास करता है, पर वहाँ क्या विघ्न रहा? यहाँ तो भेदका भेद जानना है। भेदका भेद समझमें आया हो तो कहिये।
१. मुमुक्षु-भेदके भेदकी बात आई तब हमारा बोलना बंद हुआ।
प्रभुश्री-क्यों? बोलिये न अब । बोल सकते हो तो बोलो। भेदका भेद कहनेवाला हुआ, वहाँ अन्य जड़ हुआ। “मैं तो नहीं जानता, पर ज्ञानीने जाना है' ऐसा स्वीकृत कर बात करे तो कर्मबंध नहीं होता। भेदका भेद जानें तो ऐसा होता है। कहना पड़ेगा कि आत्मा है। आत्मा है, नित्य है,
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