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उपदेशसंग्रह-१
श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगास
ता.७-११-१९३५, सबेरे पत्रांक ५३९ का वाचन
“सर्व जीव आत्मारूपसे समस्वभावी हैं।" इसे ग्रहण नहीं किया है। इस कानसे सुनकर उस कानसे निकाल दिया है। ये वचन लेखकी भाँति अंतरमें लिख रखने जैसे हैं। यह कैसे माना जाय? इस जगतमें सब जीव खदबदा रहे हैं। न यह माना गया है और न ही इस पर विश्वास है। विश्वाससे जहाज चलता है। इसकी (आत्माकी) बातें भी कहाँ है? यह तो कृपालुदेवकी दृष्टिसे, धन्यभाग्य है कि आप सुन रहे हैं। पहले पाँव टिके तब मानने में आता है।
__ “निजमें निजबुद्धि हो तो परिभ्रमण दशा टलती है।"
ये कितने अद्भुत वचन हैं! 'तो परिभ्रमण दशा टलती है'–इतना विचार नहीं किया है। यह विश्वास और प्रतीति कैसे आये? कुछका कुछ सुनें, दूसरी बातें सुने; पर इस आत्माकी बात नहीं सुनता।
मुमुक्षु-निजमें निजबुद्धि कैसे होती है?
प्रभुश्री-नासमझीका दुःख है, वहीं गड़बड़ है। बात तो पहचाननेकी है। परिणाम आने पर, पहचानने पर ही छुटकारा है।
मुमुक्षु-भक्तिके बिना ज्ञान होता है? भक्तिसे तो होता है। दुकानदारको पैसा देंगे तो माल देगा ही। पर प्रभावना तो मुफ्त मिलती है, वैसे ही ज्ञान मुफ्त मिलता है या नहीं?
__ [फिर प्रभुश्रीने सबसे पूछा और चर्चा करायी] प्रभुश्री-अपेक्षासे सभी बातोंकी 'हाँ, 'ना' होती है; पर वैसे नहीं। बात यों है-दान देते हो तो कौन लेता है? वहाँ उपस्थित हो वह लेता है। यहाँ बैठे तो सुना । भक्ति तो वचन हैं। वहाँ लिये जाते हैं, लेते हैं। जो होते हैं वे खाते हैं। भक्ति है सो भाव है। यहाँ बैठे हैं वे सुनते हैं। दूसरा तो पूछता है कि क्या क्या बात थी? इसी प्रकार दाता हो, वहाँ जाये और जागता रहे वह लेता है। ऊँघनेवाला नहीं ले सकता।
भक्ति क्या है? यही पुरुषार्थ है। ऐसा वैसा नहीं। एक आत्मा है और एक मुर्दा है, मुर्दा सुनता नहीं। भक्ति आत्मा है। इच्छा करे तो हैं, नहीं तो नहीं। यह बात कही नहीं जा सकती। भाग्यशालीको समझमें आती है। लक्ष्यमें लेगा उसका काम होगा।
भक्तिके दो भेद हैं-अज्ञानभक्ति और ज्ञानभक्ति । भक्ति ही आत्मा है। सुल्टा कर डालें। भाव, विचार और भक्ति । वैसे तो संसारमें भक्ति सर्वत्र है।
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