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उपदेशामृत मिलने, सुनने और श्रद्धा करने पर ही छूटनेकी बातकी आत्मामें गुजार होगी।" बस, इतनेमें ही समझ लो । संक्षेपमें बहुत कह दिया। ध्यानमें रखो। यह पागल मूर्ख जैसा प्रलाप है। बहरा, गूंगा, वृद्ध कौन बोलता है यह न देखो। ज्ञानीने यथातथ्य देखा, वह मुझे मान्य है, उसकी श्रद्धा-इतनी दृढ़ता करने जैसी है। यह वस्तु बार बार नहीं मिलेगी। 'पंखीका मेला ।' तेरा क्या है? एक आत्मा। आत्मभावना बड़ी बात है।
"आतम भावना भावतां जीव लहे केवलज्ञान रे, आतम भावना भावतां जीव लहे केवलज्ञान रे, आतम भावना भावतां जीव लहे केवलज्ञान रे,
आतम भावना भावतां जीव लहे केवलज्ञान रे." इसे श्रवण करें, लक्ष्य रखें, ध्यानमें रखें। अंतिम बात कहता हूँ। पकड़ रखें। फिर ऐसा अवसर नहीं आयेगा। मैं ज्ञानीका दास हूँ, उनके दासका भी दास हूँ। ज्ञानीने जो कहा है वही कहता हूँ, उसे मान्य करें। मेरी बात नहीं है, ज्ञानीकी बात है। चाहे जितना दुःख, व्याधि, पीड़ा आये, अन्य संसारी प्रीतिका स्नानसूतक कर चले जाना है। एक मात्र कहा हुआ स्मरणमंत्र, जब तक जीवको भान हो, स्मृतिमें हों तब तक याद करते रहें। सबको अंतिम अक्षर कह दिया, उसे याद रखें, चेत जायें। भावना करेंगे तो कोटि कर्म क्षय होंगे। यह वाणी तो पुद्गल है, पर ज्ञानीपुरुषका कहा हुआ सुनेंगे तो आपके धन्यभाग्य हैं! यह बात सुननेसे कर्मकी श्रृंखला टूटती है
और देवगतिका बंध होता है। इतना तो मुझे मान्य है, ऐसा निश्चित करनेसे बहुत लाभ है। पागलमूर्ख, अच्छा-बुरा, प्रिय-अप्रिय सब छोड़ दो, पर ज्ञानी-कथित, सत्पुरुष-कथित एक वचन क्या है? श्रद्धा । 'यह ज्ञानी' 'अमुक ज्ञानी' ऐसा न करो। समभाव रखो, मात्र एक सम । मैं नहीं जानता, ज्ञानीने यथार्थ जाना है, वह मुझे मान्य है। यही भावना करता हूँ, अन्य नहीं। खिचड़ीमें घी गिरे वह कामका है। अन्य सभी भावना ही है, पर वह नहीं; एक आत्मभावना और वह भी ज्ञानीने की सो भावना। यदि जीव यह दृष्टि रखेगा तो वह इस भव और परभवमें काम आयेगी। इस जीवने प्रमाद-आलस्य, व्यापार-धंधा, बाल-बच्चोंमें सब खोया है। अतः अब चेत जा । 'जागे तभी सबेरा' यह कथन सही अक्षरोंका है। इसका सुनना, उसका सुनना, अमुकका सुनना, सबका सुनना यह नहीं; पर ज्ञानीका कहा सुनना है, वह वचन रामका बाण है, फोगट नहीं जायेगा। बात बराबर समझने जैसी है। यथार्थ बात है। लक्ष्यमें रखें। *मघाका पानी बरसता है तब लोग टंकियाँ भर लेते हैं, उसी प्रकार पानी भर लेंगे और पात्र बनेंगे तो पानी टिकेगा। ज्ञानी-कथित होनेसे मुझे मान्य
* एक राजाके पुत्रको कोढ़ हुआ। राज्यके सभी वैद्योंसे चिकित्सा कराने पर उन्होंने ऐसा अभिप्राय दिया कि मघा (नक्षत्र)की वर्षाक पानीका एक सप्ताह तक सेवन करनेसे यह रोग मिट जायेगा। किंतु शीतकाल होनेसे मघाका पानी मिलना कठिन था। अतः राजाने ढंढेरा पिटवाया कि यदि किसीने मघाका पानी इकट्ठा किया हो तो उसके बदलेमें उसे जो माँगेगा वह मिलेगा।
एक वणिकने मघाका पानी टंकीमें भर रखा था, उसने कहा कि जितना चाहिये उतना पानी ले जाइये।
एक सप्ताह तक मघाके पानीका सेवन करनेसे राजपुत्रका रोग मिट गया। फिर राजाने सेठसे कहा कि जो चाहिये वह माँग लो। उसने कहा कि मेरे गुरुके कहनेसे मैंने यह पानी इकट्ठा किया था, अतः मुझे कुछ नहीं चाहिये। किंतु आप उनका समागम करेंगे तो आपको इस पानीसे भी अधिक लाभ होगा।
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