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उपदेशसंग्रह - १
करना है । सोतेको जगाना है । प्रतिबंध किया है उसे छोड़ो और इधर ध्यान दो । कृपालुदेवने दीपचंदजी मुनिको कहा था, “आप समझते हैं कि आप जो कर रहे हैं उससे कल्याण है, आपकी यह समझ मिथ्या है ।" देखिये, निकाल दिया । अतः यह समझमें आये तो काम बनता है । यह शिक्षा कुछ ऐसी-वैसी नहीं है, अगाध बात है । इतना भव बचा है । क्या है ? फिर पता लगेगा क्या ? अतः बदलना होगा । बदले बिना छुटकारा नहीं है ।
ता. १९-११-३५, सबेरे
पत्रांक ४३० का वाचन
"कल्याण जिस मार्ग से होता है उस मार्गके दो मुख्य कारण देखनेमें आते हैं। एक तो जिस संप्रदाय में आत्मार्थके लिये सभी असंगतावाली क्रियाएँ हों, अन्य किसी भी अर्थ - प्रयोजनकी इच्छासे न हों, और निरंतर ज्ञानदशा पर जीवोंका चित्त हो, उसमें अवश्य कल्याणके उत्पन्न होनेका योग मानते हैं।"
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प्रभुश्री - ये चमत्कारी तथा अलौकिक वचन हैं! दो क्रियाएँ कही। एक असंग आत्माके लिये, दूसरी ओघा -मुँहपत्ती, जप-तप आदि साधन-क्रिया कही । उसके फल मिले - निंदा नहीं करनी है । कियेका फल मिला। आत्माका नाश नहीं हुआ । आत्मा है, उसे पहचाना नहीं है, माना नहीं है । ज्ञानीपुरुषने पहचाना है । ये कृपालुदेव यथातथ्य ज्ञानी । उनके आश्रित जीवोंका भी कल्याण है । ऐसा अवसर फिर नहीं मिलेगा । अतः सबके साथ मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ भाव रखें। इच्छासे तो परिभ्रमण होता है, उससे किसीका मोक्ष नहीं हुआ । आत्मध्यान श्रेष्ठ है । ज्ञानीपुरुषोंने ठप्पा लगा दिया। अतः चेत जाइये । क्या सुनाई दे रहा है ?
सब मुमुक्षु - हाँ, सुनाई दे रहा है ।
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प्रभुश्री - तो बहुत अच्छा । इस भवमें चेत जाना है । सबके साथ मैत्री भाव रखें। आत्मा है, ज्ञानीपुरुषने उसे देखा है, वही मुझे मान्य है । मेरी यही इच्छा है, अन्य नहीं; क्योंकि अन्य सब बंधन हैं। अब वृद्धावस्था हो गई है । 'पवनसे भटकी कोयल' । छोटे-बड़े सब आत्मा हैं । पूर्वबद्ध भोगे बिना छुटकारा नहीं है । ज्ञानी भी भोगते हैं । अतः एक आत्मा । सब चेत जाइये । अंतिम अवसरकी बात है। जो सावधान रहेगा उसके बापका है । आत्माकी इच्छा और प्रीति करेगा उसका कल्याण है। 'प्रीति अनंती पर थकी जे तोडे हो ते जोडे एह ।' अन्य सब - बाल-बच्चे आदि व्यवहारसे । अपना कुछ नहीं है । अपना आत्मा है। वह कहाँ है ? तो कहते हैं कि ज्ञानीने उसे देखा है। इसके संबंधको, प्रीतिको प्राप्त करने तैयार हो जाइये। मैं सबसे असंग हूँ, प्रतिबंध रहित । मेरा कुछ नहीं, यह सब माया है, उसे देख रहा हूँ, एकमात्र ज्ञानसे ।
दो अक्षरका 'ज्ञान' वह क्या है ? दो अक्षर कौनसे कहे हैं ? संक्षेपमें समझो। उसका अर्थ ज्ञानी जानते हैं, पर समझिये, आप तो समझिये । 'ज्ञान' कहते ही सब कुछ इसमें समा गया । कुछ बाकी नहीं रहा । वह आत्मा है। ज्ञान अज्ञान, स्वभाव-विभाव - सब उसमें समा गया है, इन दो अक्षरोंको पकड़कर रखें। वह ज्ञान ज्ञानीके पास है । उन्होंने उसे जाना है, बोध किया है, यह समझनेसे ही छुटकारा है । " मात्र 'सत्' मिले नहीं, 'सत्' सुना नहीं और 'सत्' पर श्रद्धा नहीं की। इसके
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