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उपदेशामृत हो तो भी उसका (समकितका) मूल नष्ट नहीं होता। समकितदृष्टिको अंशसे सहज प्रतीतिके अनुसार सदा ही समाधि रहती है। पतंगकी डोरी जैसे हाथमें रहती है वैसे समकितदृष्टिके हाथमें उसकी वृत्ति रूपी डोरी रहती है। समकितदृष्टि जीवको सहज-समाधि है। सत्तामें कर्म रहे हों, परंतु स्वयंको सहजसमाधि है। बाहरके कारणोंसे उसे समाधि नहीं है। आत्मामेंसे जो मोह चला गया वही समाधि है।"
(श्रीमद् राजचंद्र) यह सब बात है वह क्या है ? समझ आनेपर समझनेका है। तलवार बाँधकर घूमता है, पर वार करे उसकी तलवार है। मनुष्यभव चिंतामणि है, ऐसा-वैसा नहीं। असावधान क्यों रहा? असावधान रहा इसीलिये मार खाता है। चेत जाये तो मार न खाय । छिलके कूटनेमें समय बीत रहा है। प्राण लिये या ले लेगा यों हो रहा है। कोई बात सत्समागममें पकड़ ली, वही 'मारे उसकी तलवार' कहलाती है। इस जगतमें, तिरना है त्यागसे। अन्य सब मोह-ममत्व, मेरा-तेरा किया वह मिथ्यात्व है। सब छोड़कर जाना पड़ेगा। कोई साथ नहीं आयेगा। अकेला जायेगा। 'मैं' और 'मेरा' करता है कि 'मुझे दुःख हुआ' 'मुझे सुख हुआ', पर तेरा कुछ नहीं है। आत्मा अकेला आया
और अकेला जायेगा। किसीका कुछ नहीं हुआ है। छोड़े बिना छुटकारा नहीं है, अतः समझकर ही छोड़ दे न! लिया सो लाभ । इस जीवका कर्तव्य क्या है? सत्संग, सद्बोधकी कमी है, अतः उसकी भावना रखनी चाहिये । कहाँ मिलेगी?
“निर्दोष सुख, निर्दोष आनंद, ल्यो गमे त्यांथी भले;
ए दिव्य शक्तिमान जेथी जंजीरेथी नीकळे." यह वचन चमत्कारी है-जीवको पकड़ रखने योग्य । जिस पानीसे प्यास मिटे वही कामका है। पानीके बिना जी नहीं सकते। इस संसारमें सत्पुरुषका बोध ही पानी है। वह काम निकाल देगा। बीमार होगा तो उस समय कुछ हो पायेगा? दुःख आयेगा। किसको रहना है? सब मर गये बिचारे। धूलधानी और वा-पानी (अर्थात् सर्वनाश हो गया)। 'यह दुःख-सुख, व्याधि-पीड़ा मुझे होती है।' मर! बुद्धू, तेरा क्या है? तेरा आत्मा । उसे कौन मारनेवाला है? आत्मा कभी मरेगा? अवतार अनंत बार हुए और छूटे, पर आत्मा नहीं मरा । सच्चा लाभ यहाँ इस स्थान पर लेना है। अब कौन चूकेगा? किया सो काम, लिया सो लाभ । प्रतीति आये, विश्वास और प्रेम आये तो काम बनता है। ‘मन महिला- रे वहाला उपरे, बीजां काम करंत ।' ऐसा प्रेम होना चाहिये।
“जैसी प्रीति हरामकी, तैसी हर पर होय;
चल्यो जाय वैकुंठमें, पल्लो न पकड़े कोय." तब क्या करना चाहिये? एक विनय । तेरा बुरा करे उसका भी तू भला कर । मैत्री, प्रमोद, कारुण्य, माध्यस्थ भावना करनी चाहिये, अतः लिख ले; मेरा तो अब यही मार्ग है, दूजा नहीं। मेरे चलनेका मार्ग यही है। मेरा पूर्वबद्ध कर्म मुझे दूर हटाना है। लो, रखोगे तो भी रहेगा? नहीं रहेगा। तुम्हारा शरीर भी नहीं रहेगा। अतः सब मिथ्या है। वास्तवमें तो आत्माको सँभालना है। उसे नहीं सँभाला है। ज्ञानीने उसे जाना है, वह मुझे मान्य है। अच्छा-बुरा तेरे करनेसे नहीं होगा। वहाँ तो 'सात साँधे और तेरह टूटे' उसका उपाय कौन करेगा? करेगा कोई?
मुमुक्षु-अपने परिणाम जैसे होंगे वैसा होगा। प्रभुश्री-भगवानका वचन है : 'अप्पा कत्ता विकत्ता' यहाँ कौन लाया है तुझे? सुख और
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