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उपदेशामृत वह तू नहीं, तू उससे भिन्न ही भिन्न है । यह बात विश्वास हो तो मान्य होती है। योग्यतावाले और मान्यतावालेको प्रतीति हो तो मान्य होती है। अन्य सब बात मिथ्या, नाशवान हैं, मिट जायेगी। 'जगत जीव है कर्माधीना, अचरज कछु न लीना।' सारा जगत रागद्वेष में है। सारा लोक त्रिविध तापसे जल रहा है। कहीं शांति नहीं है और शांति उसके बिना नहीं होती। चाहे जहाँ पूछते रहो, पर बात एक श्रद्धाकी है और प्रतीतिकी है। 'सद्धा परम दुल्लहा।' कुछ नहीं, अन्य सब कर्म नाशवान हैं। और वह है दीपक, सो दीपक ही है; ज्ञान सो ज्ञान ही है। इसके इच्छुक होना चाहिये । जो शोधमें होंगे, उनको ‘छह पदका पत्र' चमत्कारी है। कण्ठस्थ किया हो, किन्तु पता नहीं है । “चंद्र भूमिको प्रकाशित करता है, उसकी किरणकी कांतिके प्रभावसे समस्त भूमि श्वेत हो जाती है, पर चंद्र कभी भी किसी समय भूमिरूप नहीं होता, वैसे ही समस्त विश्वका प्रकाशक यह आत्मा भी कभी विश्वरूप नहीं होता।" कितनी बड़ी भूल है? चेतनका अनुभव थोड़ा भी नहीं है। मनुष्यभव है तो सुनते हो। यह जीव जंगलके रोझ (नीलगाय) जैसा है। जिस किसी भी दिन शरणके बिना काम नहीं चलेगा। यही एक शरण लेनी है। वार करे उसकी तलवार । बात तो बोली जाती है, कही जा सके उतनी कही जाती है, बाकी तो अनुभवकी बात है, उसके बिना पता नहीं लगता। बातोंसे बड़े नहीं बनते । खाने पर पता लगता है। कहने योग्य नहीं है। 'पाया उसने छुपाया' इनकी शरणसे इतना बोल लेते हैं। बोलने योग्य नहीं है। किसे कहें? जीव पवित्र है। योग्यताकी कमी है। तैयार हो जाओ। कोई इच्छुक चाहिये, उसको सब सुगम है। श्रद्धा और भक्ति बड़ी बात है। भक्ति काम निकाल देगी। अहंकारने सब बिगाड़ा है।
ता.१४-११-३५,शामको
['भावनाबोध मेंसे भरत चक्रवर्तीके वृत्तांतके वाचनसमय] आत्मा है उसे ज्ञानीने जाना है। सभी जीवोंको आवरण और संयोग हैं। उनमेंसे किसी जीवको वे सहायक भी हुए हैं। उसे भी उदयकर्म तो हैं, लेकिन वे उसमें ममत्व करेंगे? ज्ञानीको यदि उसके लिये विचार नहीं आयेगा तो किसे आयेगा? विघ्न आये उसे दूर करना पड़ता है। कहनेका तात्पर्य, असंग और अप्रतिबंध होनेकी आवश्यकता है। चेतो! महेमानों, चेतो! यह सब तुम्हारा नहीं है। पूरा जगत हायहायमें फँसा है। सत्पुरुषका बोध सुना हो उसको क्या होता है? उसे सब परभाव लगता है और 'छोडूं छोडूं' होता है। शांति तो आत्माकी है। उसे जीवने देखी नहीं है। पौद्गलिक शांतिको सुख मानता है। यह सब जागृत आत्माओंने किया है। तुम तो मेरा मेरा कर रहे हो, पर भगवानने तो सब राख और नाशवंत देखा है। कुछ पुण्य किया है उसीसे यह मनुष्यभव प्राप्त हुआ है। चौरासी लाख योनिके जीव भी आत्मा हैं। जैसी घानी सिकती है, वैसे दुःखी हो रहे हैं। यह सब अन्य है, कुछ चेत जाना है। आवश्यकता है सत्संगकी और बहुत उत्तम बोधकी। इस कानसे सुनकर उस कानसे निकाल देता है। सारे संसारकी चिंता करता है। यह बहुत दुःखदायी और भयंकर है। समझनेका काम है। अतः चेतो, चेतो। व्याधि होगी तो क्या सुनोगे? कुछ महाभाग्य हो तो वचन कानमें पड़ते हैं। चमत्कारी वचन हैं। जागो, जागो । सोतेको धक्का मारकर जगाना है। वृत्ति-चित्त चंचल है, वह बंधन कराता है, भव-वृद्धिका धंधा है। पर
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