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उपदेशामृत
नहीं है। कृपालुदेवकी कृपा कि उन्होंने बोध दिया, उनके वचनरूपी चाबी मिल गई और काम हो गया! इसकी गिनती कहाँ है ? दूसरेकी गिनती करता है वहाँ बुरा होता है, उलटा हुआ है। इसलिये अब जाने दे। तुझे ही भोगना पड़ेगा । इसलिये चेतनेका अवसर आया है तो चेत जा, नहीं तो मारा जायेगा। माता-पिता, बच्चे, सगे-संबंधी कोई छुड़ायेंगे नहीं, उल्टे बंधन कराते हैं ।
‘“सहु साधन बंधन थया, रह्यो न कोई उपाय; सत् साधन समज्यो नहीं, त्यां बंधन शुं जाय ?"
यह एक ही वचन ! सुना पर गुना नहीं । ध्यानमें नहीं है, लक्ष्यमें नहीं है । पक्वान्न खाये तो मुँह मीठा होता है। बात माननेकी है । इस स्थान पर पुण्यबंध होता है, दूसरे स्थान पर चार गतिका कारण है । छाया हो वहीं बैठा जाता है ।
१. मुमुक्षु - " उसकी आज्ञाका निःशंकतासे आराधन करना चाहिये ।" किसकी आज्ञा ? और आराधन क्या ?
प्रभुश्री - विचार करना पड़ा न ? और विचार तो आत्माको होता है, भान नहीं है, पता नहीं है, इसकी गड़बड़ है ।
१. मुमुक्षु - इसीलिये तो पूछना है न ? - पता नहीं है इसलिये ।
२. मुमुक्षु-सद्गुरुकी आज्ञाकी उपासना करनी है ।
प्रभुश्री - सद्गुरु कहाँ हैं ?
१. मुमुक्षु - सत्संगमें हैं ।
प्रभुश्री - और कहाँ है ?
३. मुमुक्षु - जहाँ आत्मज्ञान है, वहाँ सद्गुरु हैं । २. मुमुक्षु - आत्मामें हैं ।
१. मुमुक्षु -
“व्यवहारसे देव जिन, निहचेसे है आप; एहि बचनसे समझ ले, जिन प्रवचनकी छाप.'
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४. मुमुक्षु-वाणीमें तो सभी बोलते हैं, पर पाताल फूटा हो उसका पानी काम आता है । १. मुमुक्षु - सत्साधन क्या ?
प्रभुश्री - कुछ गुत्थी उलझ गई है। इसे खुले दिलसे समझना चाहिये कि लो ऐसे, जिससे बादमें अन्य किसीको बोलना न पड़े। दूसरा कोई बोल न सके वैसा कहो ।
२. मुमुक्षु-कार्य सिद्ध करनेके लिये कारणका सेवन करना होता है । सत्पुरुषकी सेवा करे तो आत्मज्ञान होना चाहिये । अपने सारे भाव बदलकर सत्पुरुषके चरणमें समर्पित कर देने चाहिये ।
प्रभुश्री - कहना तो ठीक है । मुझे अपना कहाँ मनवाना है? पातालका पानी निकले तो काम हो गया! वैसा कुछ कहना है ।
५. मुमुक्षु - साधन, पुरुषार्थ, संग। उसके दो भेद : सत् और असत् ।
सत् वस्तु सत्पुरुषके योगके बिना नहीं आ सकती ।
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