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उपदेशसंग्रह-१
१६७
अतः जानेवाले हैं-कर्म जा रहे हैं, जल रहे हैं, नष्ट हो रहे हैं । किसीके अमर रहे हैं ? सभी स्थानों पर, चारों गतिमें गये, पर आत्माका नाश नहीं हुआ । चाबी हाथ नहीं आई। भेदी गुरु नहीं मिले । "होत आसवा परिसवा, नहि इनमें संदेह; मात्र दृष्टिकी भूल है, भूल गये गत एहि."
कहनेका तात्पर्य, भूल मात्र दृष्टिकी है । छोड़िये, अब बोलियेगा नहीं । इन चर्म-चक्षुओं से क्या देखेंगे? जहाँ है, वहाँ है । सबमें बड़ेसे बड़ा, चौदह पूर्वका सार - 'सद्धा परम दुल्लहा' यह काम बना देती है। ‘एगं जाणइ से सव्वं जाणइ' यह बात होती है, पर माँको छोड़कर मीनी (बिल्ली ) का दूध पीने जाये तो क्या निकले ? कोई नाम देनेवाला नहीं, बाल भी बाँका नहीं कर सकता । जगतमें कर्म घूमते फिरे, पर बँधेंगे नहीं । साधुका वेष पहननेसे साधु नहीं कहलाता। बैठते, उठते, चलते, फिरते, खाते, पीते संयम - उसने जाना सो। इसे तूने नहीं जाना, दृष्टि बदली नहीं । आस्रव करे वहाँ भी संवर होता है ।
कौन करनेवाला है? यह आत्मा चाहे सो कर सकता है। अधिक क्या कहें? एक आत्माको जान लो; उसकी पहचान करो । सद्गुरुके बिना पता नहीं लगेगा ।' मल्यो छे एक भेदी रे, कहेली गति ते तणी।' उसके धन्य और पूर्ण भाग्य हैं कि जो मानेगा, उसका काम बन जायेगा । ये सब कर्मके चोचले हैं। यह बात कुछ भिन्न है । जिसे समझमें आती है उसे कुछ गिनतीमें नहीं, बाल भी बाँका नहीं हो सकता । करना पड़ेगा, किये बिना छुटकारा नहीं है । ऐसा अवसर आया है ! फिर नहीं मिलेगा, अतः चेतिये ।
ता. १६-११-३५ शामको
पत्रांक १६६ का वाचन
"होत आसवा परिसवा, नहि इनमें संदेह; मात्र दृष्टिकी भूल है, भूल गये गत एहि. "
“किसी भी प्रकारसे सद्गुरुकी शोध करें ।”
ये वचन रामके बाण हैं! यह लक्ष्यमें भी नहीं है । सुलटानेके लिये यह भव है। समझनेका योग सत्संगमें है। सत्संग और बोधकी कमी है । 'मन महिलानुं रे वहाला उपरे, बीजां काम करंत ।'
इस संसारमें मोहके समान बुरा अन्य कोई नहीं है । मोह वैरी - शत्रु है । एक सद्गुरुसे ही वह छूट सकता है, उन्हें याद करें । अन्यमें तल्लीन हो रहा है, पर जहाँ होना चाहिये वहाँ प्रेम नहीं है । राग करना हो तो सत्पुरुष पर करें । वचन ग्रहण नहीं करता । अनादिसे विषय कषाय, भोगविलासमें पड़ा है। सारा लोक त्रिविध तापसे जल रहा है । दृष्टि बदले तो ताला खुल जाय । गजसुकुमारने क्या किया ? मन, दृष्टि बदल दी कि मुझे मोक्षकी पगड़ी बंधाई । मेरा क्या ? मेरा आत्मा। पहचान नहीं है, इसलिये भटक रहा है, मर रहा है। यह जीव भूल करता है, मार खाता है । जाने दो, अब तो इस भवमें चेत जाओ । राग कर, पर आत्माके साथ । वहाँ प्रेम-प्रीति कर । यों प्रेमको बदल दे | यह बात भाव पर आधारित है । भाव विक्रियाका था, पर वह तू नहीं । समझ बदलनी चाहिये। प्रेम-प्रीति मोह-मायाके ऊपर होती है । पर एक चाबी घुमानेका पता नहीं है, भान
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