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उपदेशसंग्रह-१
१७१ है, पर पहचानता नहीं है। जैसे कोई हाथ पकड़कर कहे कि लो, देखो, इसे पहचाना? जैसे संसारमें रात-दिन एक स्थानपर साथमें मिलते हों, पर किसीसे पहचान न हो, और दूसरा व्यक्ति बताये कि यह तो अमुक व्यक्ति है, तब कहे कि अरे! ये तो अपने साथ रहते थे, पर मैं तो पहचान ही न सका। फिर पछताता है, अतः पहचान बड़ी बात है। पहचानसे ही छुटकारा है। जप, तप आदि सब साधन बादके है। पहले पहचान, सिद्धांतका सार : ‘सद्धा परम दुल्लहा।' यह तो भगवानने गौतम जैसे शिष्यको कहा है। कहनेका तात्पर्य, सारका सार 'श्रद्धा' है। झंकार होगी। जहाँ चक्रवर्तीका पद प्राप्त हुआ हो, वहाँ नौ निधान चले आते हैं, लेने नहीं जाना पड़ता। अतः पढ़ा हुआ हो, अनपढ़ हो, पर 'जो जाना उसे नहीं जानूँ, जो नहीं जाना उसे जानूँ।' यह नक्की नहीं हुआ। हो जाय तो फिर चिंता नहीं। फिर सभी बातोंमें आनंद रहता है। ''ज्ञानीना गम्मा जेम नाखे तेम सम्मा।' मर! फिर पागल हो जाये, उन्माद आवे, रोग आवे, व्याधि आवें–चिंता नहीं।
२. मुमुक्षु-"विशेष रोगके उदयसे अथवा शारीरिक मंद बलसे ज्ञानीका शरीर कम्पित हो, निर्बल हो, म्लान हो, मंद हो, रौद्र लगे, उसे भ्रमादिका उदय भी रहे; तथापि जिस प्रकारसे जीवमें बोध एवं वैराग्यकी वासना हुई होती है, उस प्रकारसे उस रोगका, जीव उस उस प्रसंगमें प्रायः वेदन करता है।"
प्रभुश्री-इसका अर्थ स्पष्ट समझना चाहिये । भ्रम आदि रोग हुआ हो तो भी क्या वेदन करता है? इतना स्पष्ट कह दो। पागल, उन्मादी हो तो भी जीवमें जितनी बोध और वैराग्यकी वासना हुई हो उतना ही जीव उस रोगको वेदता है। यह मर्मकी बात है, कुछ समझमें आयी? वैराग्य आत्मा है, बोध आत्मा है। अन्य बोध बहुत सुने, अनंत बार साधन किये, पर वे नहीं । यहाँ कहना है सत् बोध। जिसे इस बातकी समझ और दृढ़ता हो गई है वह फिर नहीं डिगेगा। समझदार व्यक्ति हो किंतु बीमारीके कारण पागलकी भाँति बोले और बकवास करे; ऐसा हुआ हो, फिर भी अंतरंगमें ऐसी गाँठ बैठ गई है कि आत्मासे सब भिन्न है-सर्दी, बुखार सबको जाननेवाला हुआ, भेदी हुआ। भेदके भेदको जाना है? वह संसारकी वासना, विकल्प आदिसे आत्माको भिन्न करता है अर्थात् इन सबसे स्वयं भिन्न होता है। अतः भेदके भेदको समझनेसे काम होगा। कोई दुत्कारे, मारे, काटे, छीले, टुकडे करे तो भी कुछ नहीं। तब कहा जा सकता है कि आत्मा समझमें आया है। तात्पर्य, समझनेकी आवश्यकता है। आत्माको समझें। जिसने जाना उसने जाना । उसे अच्छा-बुरा कुछ भी हो, पर ऐसा कुछ नहीं लगता। अन्यथा नहीं मानता। आया है वह जानेके लिये ही आया है, पूर्वबद्ध छूट रहा है। इसका किसी भेदीको पता है । जिसने आत्माको जाना है, उसके कर्म छूटते हैं; दूसरा बँधता है। अतः जाननेसे छुटकारा होगा। बात यह है। आगम-सिद्धांतमें भी यही है, ‘एगं जाणइ से सव्वं जाणइ' एक ही बात है। यही शाश्वत है।
एगो मे सस्सदो अप्पा, णाणदंसणलक्खणो ।
सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोगलक्खणा ॥ इसकी सगाई किसने की थी? एक सगाई हो जाय तो सब काम हो जाये । सगाई कर डालो। अभी मनुष्यभवमें सगाई कर लेनी चाहिये ।
+ भावार्थ-ज्ञानीकी प्रत्येक प्रवृत्ति सम्यक् होती है।
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