SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 263
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६८ उपदेशामृत नहीं है। कृपालुदेवकी कृपा कि उन्होंने बोध दिया, उनके वचनरूपी चाबी मिल गई और काम हो गया! इसकी गिनती कहाँ है ? दूसरेकी गिनती करता है वहाँ बुरा होता है, उलटा हुआ है। इसलिये अब जाने दे। तुझे ही भोगना पड़ेगा । इसलिये चेतनेका अवसर आया है तो चेत जा, नहीं तो मारा जायेगा। माता-पिता, बच्चे, सगे-संबंधी कोई छुड़ायेंगे नहीं, उल्टे बंधन कराते हैं । ‘“सहु साधन बंधन थया, रह्यो न कोई उपाय; सत् साधन समज्यो नहीं, त्यां बंधन शुं जाय ?" यह एक ही वचन ! सुना पर गुना नहीं । ध्यानमें नहीं है, लक्ष्यमें नहीं है । पक्वान्न खाये तो मुँह मीठा होता है। बात माननेकी है । इस स्थान पर पुण्यबंध होता है, दूसरे स्थान पर चार गतिका कारण है । छाया हो वहीं बैठा जाता है । १. मुमुक्षु - " उसकी आज्ञाका निःशंकतासे आराधन करना चाहिये ।" किसकी आज्ञा ? और आराधन क्या ? प्रभुश्री - विचार करना पड़ा न ? और विचार तो आत्माको होता है, भान नहीं है, पता नहीं है, इसकी गड़बड़ है । १. मुमुक्षु - इसीलिये तो पूछना है न ? - पता नहीं है इसलिये । २. मुमुक्षु-सद्गुरुकी आज्ञाकी उपासना करनी है । प्रभुश्री - सद्गुरु कहाँ हैं ? १. मुमुक्षु - सत्संगमें हैं । प्रभुश्री - और कहाँ है ? ३. मुमुक्षु - जहाँ आत्मज्ञान है, वहाँ सद्गुरु हैं । २. मुमुक्षु - आत्मामें हैं । १. मुमुक्षु - “व्यवहारसे देव जिन, निहचेसे है आप; एहि बचनसे समझ ले, जिन प्रवचनकी छाप.' "" ४. मुमुक्षु-वाणीमें तो सभी बोलते हैं, पर पाताल फूटा हो उसका पानी काम आता है । १. मुमुक्षु - सत्साधन क्या ? प्रभुश्री - कुछ गुत्थी उलझ गई है। इसे खुले दिलसे समझना चाहिये कि लो ऐसे, जिससे बादमें अन्य किसीको बोलना न पड़े। दूसरा कोई बोल न सके वैसा कहो । २. मुमुक्षु-कार्य सिद्ध करनेके लिये कारणका सेवन करना होता है । सत्पुरुषकी सेवा करे तो आत्मज्ञान होना चाहिये । अपने सारे भाव बदलकर सत्पुरुषके चरणमें समर्पित कर देने चाहिये । प्रभुश्री - कहना तो ठीक है । मुझे अपना कहाँ मनवाना है? पातालका पानी निकले तो काम हो गया! वैसा कुछ कहना है । ५. मुमुक्षु - साधन, पुरुषार्थ, संग। उसके दो भेद : सत् और असत् । सत् वस्तु सत्पुरुषके योगके बिना नहीं आ सकती । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy