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________________ उपदेशसंग्रह-१ १६९ प्रभुश्री-बहुत चतुराई! कपड़े पहन-ओढ़ कर बात की है। बात की सो ठीक है। दो बात एकदम स्पष्ट हैं : एक तो सब छोड़ना पड़ेगा और एक बिना दूल्हेकी बारात कहलाती है। अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य। अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्ठिय सुपट्ठिओ ॥ (उत्तराध्ययन २०, गाथा ३७) क्या अज्ञान है वहाँ आत्मा नहीं था? पर कहना है ज्ञान-आत्माके संबंधमें। आत्माके बिना कोई करनेवाला नहीं है। आत्मा कर्मके कारण नहीं है। आत्मा मोक्षस्वरूप है। 'जब जागेंगे आतमा, तब लागेंगे रंग।' मूल बात तो पातालका पानी चाहिये । आत्मा तो है। बोध सत्संग आदि द्वारा अज्ञानका ज्ञान भी आत्माको होगा: जडको. कर्मको नहीं होगा। कर्मकी दौड है! परा जीवन कर्मके लिये खपाया है, वह भूल है। अतः पहले एकका अंक (१) चाहिये, फिर सब शून्य (०) कामके हैं। वह कौन पहचानेगा? आत्मा ही। निश्चयसे ज्ञानी, गुरु आत्मा है। उसे वही पहचानेगा। अतः सत्संगमें बोध, वाणी सुनकर नक्की कर लें कि कहाँ जाना और क्या करना है? 'एगं जाणइ से सव्वं जाणइ' इसके बिना एक कदम भी नहीं चल सकते। गुरु आत्मा है, पर पहचान होनी चाहिये । 'कीली (चाबी) गुरुके हाथ, न पायेंगे भेद वेदमें ।' बात तो माननेकी, सुननेकी है। सुनाई नहीं देती; कारण, योग्यताकी कमी है, विघ्न बहुत हैं। वह मिलनेसे, वह सुननेसे, उस पर श्रद्धा करनेसे आत्मासे झंकार उठेगी, छूटनेकी बातकी। अतः झंकार होगी वहींसे, अन्य स्थानसे नहीं। स्वयं तैयार होने पर ही छुटकारा है। तब आस्रवका संवर होगा। बात इतनी ही है। बादल चढ़ा हो पर फट जाये, वैसे ही यह बात कौन सुनेगा? यह (आत्मा) न होता तो कौन सुनता? जिसके गीत गाने हैं, जिसे समझना है, वह समझमें नहीं आया। गुरु तो आत्मा है, ज्ञानी तो आत्मा है, जगत (मोह-विकल्प) तो आत्मा है। अन्य सब वर्ण, रस, गंध, स्पर्श उसमेंसे यह निकला, अन्य कुछ न निकला, कारण जड़ है उसमेंसे आत्मा नहीं निकलता। समझनेकी भूल है। सुना ही नहीं है। काल नहीं पहुँचता, बाकी बात गंभीर है, पूरी नहीं हुई है। समझने जैसी है। ता. १७-११-३५, सबेरे पत्रांक १६६ का वाचन __ “अनादिकालके परिभ्रमणमें अनन्त वार शास्त्रश्रवण, अनन्त वार विद्याभ्यास, अनंतवार जिनदीक्षा और अनन्तवार आचार्यत्व प्राप्त हुआ है। मात्र 'सत्' मिला नहीं, 'सत्' सुना नहीं, और 'सत्'की श्रद्धा की नहीं, और इसके मिलने, सुनने और श्रद्धा करने पर ही छुटकारेकी गूंज आत्मामें उठेगी।" प्रभुश्री-दोष तो जीवका है, योग्यताकी कमी है। १. मुमुक्षु-जीव तो नहीं चाहता कि मैं ऐसा करूँ, फिर क्यों होता है? प्रभुश्री-तृष्णा करता है। कमी योग्यताकी है। जड़को तृष्णा नहीं है, जीवको है। जीवमें भूल कितनी है? वह किस बातकी भूल है? १. यह आत्मा स्वयं ही सुख और दुःखका कर्ता और भोक्ता है। यह आत्मा स्वयं ही सन्मार्ग पर रहे तो अपना मित्र और कुमार्गपर रहे तो स्वयं ही अपना शत्रु है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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