________________
१६४
उपदेशामृत जानेवाला था। पर कृपालुदेवने बुलाकर उपदेश दिया, धक्का लगे ऐसे दो बोल कहे। जिसके अंतरमें लगी हो वह चेत जाता है। बोध लगता है तब अंतरमें भाला चुभता है। फिर छोड़े नहीं, अंतरमें ही रखे और स्मरण किया करे । बस तू किये ही जा। यह बात ही कुछ और है। एक धर्म ही सार है।
देखकर खेद होता है, अरेरे! ऐसा अवसर खो रहे हो! मूल तो पकड़ और मान्यता काम बना देगी। अन्य सब मिथ्या है। एक आत्मा सत्य है, चेतने योग्य है। यह समझदार पुरुषको कहना है । कोई जीव चेत जायेगा तो उसने हजारों रुपये कमा लिये। 'सद्धा परम दुल्लहा।' अन्य नहीं। किसी एक सत्पुरुषको ढूँढे । जगतमें माया है, सब झगड़ा! उसे देखकर प्रसन्न क्यों होता है? कोई साथ चलनेवाला नहीं है। एक सुई भी साथ नहीं आयेगी। धर्म करेंगे तो काम बनेगा। अतः भावना
और पकड़ करनी चाहिये। कोई ढुंढिया, तपा, विष्णु, दिगंबर-यह मार्ग नहीं है। पुण्यबंध करते हैं। निंदा नहीं करनी है, पर यह नहीं है। मार्ग कोई भिन्न ही है। मेरा कुछ भी नहीं है। देह भी मेरी नहीं है। बाल-बच्चे, सगे-संबंधी, धन-दौलत किसीके नहीं हुए। सब भूल है, धोखा है, सब लुटेरे हैं। क्रोध, मान, माया, लोभ, मूर्छा-ममता तुम नहीं हो। बहुत भूल है। अभी तो समता, क्षमा, दया, धैर्य रखना चाहिये । बँधा हुआ आता है, चला जाता है, वापिस नहीं आता। जो तेरे नहीं हैं उन्हें अपना कहता है, यही दुःख है, इसीसे वापिस आते हैं। तेरा तो एक आत्मा है, उसका हो जा। अंतरंगमें यह गाँठ बाँधनी है। कोई सुनता है? ध्यानमें नहीं ले रहा है। विश्वाससे तो जहाज चलते हैं। इसी प्रकार आत्माका भाव है। यह भाव कहाँ करना चाहिये? सच्चे गुरुमें । मेरा आत्मा, अन्य मेरा नहीं। ऐसी समझ हो तो काम होता है। समझमें भूल है। यही बड़ी कमी है। बच्चेको चिंतामणिरत्न दिया हो तो वह उसे अच्छा कंकड़ समझता है, पहचानता नहीं है। यह कैसी बात है! सचमुच चिंता करने जैसा है। पूर्वमें पुण्य किये तो यह संयोग मिला। उसे नासमझीमें व्यर्थ न जाने दो। अतः आत्माका भाव करना चाहिये । 'वार करे उसकी तलवार ।' 'करे उसके बापका।' करेगा तो मिलेगा। भावना करनी चाहिये। अन्य काममें समय खोता है, पर धर्मके काममें समय नहीं बिताता। यही विपरीतता है। समझे तो सहज है। छोड़े बिना नहीं चलेगा। अंतमें देहको भी छोड़ना पड़ेगा। अतः बातको कुछ ध्यानमें लेना चाहिये । सचमुच सावधान होना है। इस अवसरको जाने नहीं देना है। माया और मोहसे बुरा होता है।
"सहु साधन बंधन थया, रह्यो न कोई उपाय;
सत्साधन समज्यो नहीं, त्यां बंधन शुं जाय?" यह तो हृदयका हार है। एक ही शब्द, पर भान नहीं है। कियेका फल होता है, किन्तु इसका परिणाम भिन्न ही आयेगा। देख लेना, कर्तव्य है। चेत जाओ, फिर ऐसा दिन नहीं आयेगा-जैसातैसा नहीं है। ध्यान रखो।
ता. १६-११-३५, सबेरे __ मनुष्यभव दुर्लभ है। अकेला आया है और अकेला जायेगा। आत्मा अकेला है, उसे पहचानना है। यह पहचान सत्संगमें होगी। किसी भी प्रकारसे सत्पुरुषको ढूँढे । यह मूल आधार है। उसे
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org