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उपदेशामृत
श्री आबू, ता.२६-३-३५ एकांत निवृत्तिका योग बहुत हितकारी है। महान मुनिवर एकांत निवास करते हैं। आस्रवमें संवर हो ऐसी कोई कला ज्ञानीपुरुषके पास है। जो-जो देखते हैं, जो-जो कुछ करते हैं उसमें प्रथम आत्मा है। उसके बिना तृणके दो टुकड़े भी नहीं हो सकते ऐसा परमकृपालुदेवने कहा है। आत्माको छोड़कर कुछ नहीं हो सकता। मार डाल आत्माको, कभी वह मर सकेगा? मात्र पहचान नहीं है। जैसे जौहरीको हीरेकी पहचान है तो उसकी कीमत समझमें आती है। लकड़हारेके हाथमें रत्नचिंतामणि आये तो भी वह उसे कंकर समझकर फेंक देता है। रत्नचिंतामणि तो यह मनुष्य देह है। ऐसा योग पुण्यका फल है। उसकी भी आवश्यकता है। पुण्य है तो अभी इस निवृत्तिके योगमें आत्माकी बात कानमें पड़ती है और परिणमित होती है। परिणाम-परिणाममें भी बहुत भेद हैं। भाव और परिणाम वारंवार कहते हैं, वह विचारणीय है। ___ 'आत्मसिद्धि' अमूल्य है। उसमें रिद्धि-सिद्धियाँ, अनेक चमत्कार भरे पड़े हैं। पर समझेगा कौन? जो समझेगा उसे रिद्धि-सिद्धिका कुछ काम नहीं है। परंतु ये अपूर्व वचन हैं, विश्वास करने योग्य हैं। भले ही मुझे समझमें न आये, पर परमकृपालुदेवको तो समझमें आया है न? इतना विश्वास तो अवश्य करने योग्य है। 'कर विचार तो पाम' इसमें सब क्रिया, ज्ञान आ जाता है। पर उसका माहात्म्य लगना चाहिये, विचार आना चाहिये। क्या कहें? योग्यताकी कमी है, फिर भी उस पुरुषने कहनेमें कोई कमी नहीं रखी।
"छूटे देहाध्यास तो, नहि कर्ता तुं कर्म;
नहि भोक्ता तुं तेहनो, ए ज धर्मनो मर्म." आत्माका सुख अनंत है
"जे पद श्री सर्वज्ञे दीढं ज्ञानमां, कही शक्या नहीं पण ते श्री भगवान जो; तेह स्वरूपने अन्य वाणी ते शुं कहे?
अनुभवगोचर मात्र रहुं ते ज्ञान जो." इस सुखका स्वाद आना चाहिये । उसका प्रथम सत्पुरुष द्वारा श्रवण हो तो भी महाभाग्य मानना चाहिये। यह बात अन्यत्र कहाँ मिलेगी? सत्संगमें आत्माकी ही बात होती है। कुछ पैसेटकेकी भाँति इस उपदेशका लाभ नहीं होता, दिखाई नहीं देता, पर ज्ञानी तो जानते हैं। धन तो मिट्टी है, यहीं पड़ा रहनेवाला है। पर आत्माका धर्म आत्माके साथ जानेवाला है, अतः उसे अत्यंत ध्यानपूर्वक सुनना चाहिये। सुनते-सुनते आत्मस्वरूपका भान होगा। कुछ घबराने जैसा नहीं है। कुछ अच्छा नहीं लगता, चलो उठ चलें, चले जायें ऐसा करना योग्य नहीं है। चाहे जितने कष्ट पड़े तब भी इस विषयकी बात सुननी चाहिये । साता-असाता तो कर्म है, उससे कुछ घबराना नहीं। वह तो अपना है ही नहीं। सब जानेवाला है। आत्माका कभी नाश नहीं हो सकता। उसकी पहचान कर लेनी है। सत्संगसे वह होती है।
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