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विचारणा
भक्तिका स्वरूप कहिये । ज्ञानीको पता है । भक्तिके अनेक भेद हैं" श्रवण, कीर्तन, चितवन, वंदन, सेवन, ध्यान; लघुता, समता, एकता, नवधा भक्ति प्रमाण. "
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(१०)
जीवकी दशा किससे आवरित है ?
मोहसे ।
मोह किस कारणसे है ?
मनके कारण ।
मनके कारण हुआ, तो बदला कैसे ?
बोधसे ।
बोध क्या ? सत्पुरुषकी वाणी ।
सत्पुरुषकी वाणी कई बार सुनी, पर मोह क्यों नहीं जाता ? पात्रताके अभावसे ।
कुपात्र भी सुपात्र होता है ।
'जो इच्छो परमार्थ तो करो सत्य पुरुषार्थ ।' अतः एकमात्र पुरुषार्थ ही कर्तव्य है जी । विशुद्ध भावसे, गुरुगमसे समझने पर शल्य जाता है जी ।
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(११)
ता. ८-१२-३१
मैं जानता हूँ वह सब मिथ्या है। ऐसी सद्गुरुकी दृष्टिसे श्रद्धा हुई हो, वे तो विरले ही होते हैं। जो अपनी पकड़को छोड़ते हैं वे जिज्ञासु हैं ।
ता. ६-१२-३१
"हुं कोण छु ? क्यांथी थयो ? शुं स्वरूप छे मारुं खरुं ?" सद्गुरु कहे सो सही है । पर आजकल तो गुरु अनेक हो गये हैं ।
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पैर रखते पाप है । दृष्टिमें विष है । विष, विष और विष है, ऐसा सोचकर आजके दिनमें प्रवेश कर । वह क्या ?
"चेतन जो निजभानमां, कर्ता आप स्वभाव;
वर्ते नहि निज भानमां, कर्ता कर्म-प्रभाव. "
१. 'खाजा मिठाईका चूरा' (अर्थात् मिठाई जैसे मधुर-रुचिकर ज्ञानीके वचन हैं ।)
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यह बराबर हुआ ? योग्यताकी कमी है। सत्संग, सद्द्बोध, सत्पुरुषार्थ चाहिये । गुरुगमके बिना समझमें नहीं आता। नहीं तो एकदम खुला है । " खाजांनी भूकरी ।'
यह आत्मा, यह भी आत्मा । दृष्टि कहाँ ? मात्र दृष्टिकी भूल है ।
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