________________
१५०
उपदेशामृत (१२)
ता. ९-१२-३१ जगत मिथ्या है, जगत असार है।
आत्मा सत्य है। उसे किसीने जाना नहीं है। जो कहते हैं कि मैंने जाना है, वह मिथ्या है और अहंकार है। अतः जो मैंने जाना वह सत्य है ऐसा नहीं, पर ज्ञानीने जाना वह सत्य है।
मिथ्या ग्रहण हुआ है जिससे इसको बोधकी आवश्यकता है।
(१३)
ता.१०-१२-३१ १'जेवा भाव तेवा प्रभु फळे ।' हम जाँच करें कि इस जीवके रागादि गये या नहीं? यदि ऐसा है तो जिस ज्ञानीके गये हैं उसके वचन मानें ।
अन्य कहते हैं वह सत्य लगता है, तो भी असत्य है ऐसा क्यों? मुझमें क्रोध नहीं है, मानको त्यागकर कहता हूँ, ऐसा कहता है वह सत्य है क्या?
मार्गका जानकार (मार्गदर्शक) नहीं है।
सूरत, ता.१२-६-३४ वृत्तिको रोकें। श्री ज्ञानीने जड़ और चैतन्यकी व्याख्या यों की है
"जडभावे जड परिणमे, चेतन चेतन भाव;
कोई कोई पलटे नहीं, छोड़ी आप स्वभाव." इसमें जड़-चेतनकी पहचान कराई है। जड़ : यह पुद्गल है। उसके परमाणु हैं, पर्याय हैं। उसे ज्ञानी जानते हैं। जड़ सुखदुःखको नहीं
जानता। द्रव्य, गुण, पर्याय जड़के भी हैं। कर्म जड़ है। आत्मा : इसे जीव कहते हैं। चैतन्यशक्ति कहते हैं। जानता है, देखता है, वह ज्ञानस्वरूप आत्मा
है। द्रव्य, गुण, पर्याय आत्माके भी हैं। उसे जानने पर भेदज्ञान होता है । जड़को जड़ जाने और चेतनको चेतन जाने यह भेदज्ञान।
१. जैसे भाव वैसे प्रभु फलते हैं अर्थात् जैसे भाव वैसा उसका फल मिलता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org