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उपदेशामृत
(६)
प्रदेशवत्त्व
अगुरुलघुत्व
प्रमेयत्व
द्रव्यत्व
वस्तुत्व
अस्तित्व
- इस विषय में आपकी समझमें आये उतना कहें। इसका विचार कब-कब किया है ? इसका समाधान, एकमें आ जाये वह क्या है ?
संपूर्ण जगतका स्वरूप इसमें ज्ञानी समझते हैं । ज्ञानी उसे ही जानें जी । 'एगं जाणइ से सव्वं जाण' इस पर विचार किया है ? गुरुगमसे जीव जागृत होता है। अनुभवमें सब आ जाता है ।
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(७)
ता. २९-११-३१
वृत्ति उदयमें आये उसे सद्गुरुके बोधकी स्मृतिसे रोकें । इस विचारसे पुरुषार्थ कर्तव्य है । अभ्यास कर्तव्य है । चमचा हिलानेसे उभरेगा नहीं । कषाय कब नहीं है? तब क्या करें ? उपशमदशा । वह किसे कहते हैं ? बाह्यवृत्ति बदलनेसे, दृष्टि बदलनेसे वह बदलती है । वह कैसे परिणामसे बदलेगी ? पर्यायदृष्टिसे सब दुःख है; वह बदलेगी तभी छुटकारा होगा - भाव, विचार ।
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(८)
सद्गुरूने यथातथ्य स्व-रूप जाना है । आत्मा है, वह जानता है, वह सुनता है ।
कार्तिक वदी ३, सं. १९८८, ता. २८-११-३१
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श्रद्धासे मान्य हुआ तो फिर उसे कुछ शेष रहा क्या ?
उदयकर्मका विपाक विचित्र होता है, किंतु यदि श्रद्धा बदले नहीं तो आत्माका कल्याण हो चुका समझें । रूईका ढेर जल जायेगा - अवश्य ।
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(९)
सत्पुरुषने कहा है वह सत्य है जी ।
मैं तो कहता ही नहीं । ज्ञानीने कहा वही कहता हूँ । ज्ञानी किसे कहेंगे ?
' आत्मसिद्धि' में गाथा है, वह
"आत्मज्ञान समदर्शिता, विचरे उदय प्रयोग; अपूर्व वाणी परमश्रुत, सद्गुरु लक्षण योग्य. "
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ता. ३-१२-३१
ता. ५-१२-३१
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