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________________ १४८ उपदेशामृत (६) प्रदेशवत्त्व अगुरुलघुत्व प्रमेयत्व द्रव्यत्व वस्तुत्व अस्तित्व - इस विषय में आपकी समझमें आये उतना कहें। इसका विचार कब-कब किया है ? इसका समाधान, एकमें आ जाये वह क्या है ? संपूर्ण जगतका स्वरूप इसमें ज्ञानी समझते हैं । ज्ञानी उसे ही जानें जी । 'एगं जाणइ से सव्वं जाण' इस पर विचार किया है ? गुरुगमसे जीव जागृत होता है। अनुभवमें सब आ जाता है । ★ (७) ता. २९-११-३१ वृत्ति उदयमें आये उसे सद्गुरुके बोधकी स्मृतिसे रोकें । इस विचारसे पुरुषार्थ कर्तव्य है । अभ्यास कर्तव्य है । चमचा हिलानेसे उभरेगा नहीं । कषाय कब नहीं है? तब क्या करें ? उपशमदशा । वह किसे कहते हैं ? बाह्यवृत्ति बदलनेसे, दृष्टि बदलनेसे वह बदलती है । वह कैसे परिणामसे बदलेगी ? पर्यायदृष्टिसे सब दुःख है; वह बदलेगी तभी छुटकारा होगा - भाव, विचार । ⭑ (८) सद्गुरूने यथातथ्य स्व-रूप जाना है । आत्मा है, वह जानता है, वह सुनता है । कार्तिक वदी ३, सं. १९८८, ता. २८-११-३१ Jain Education International श्रद्धासे मान्य हुआ तो फिर उसे कुछ शेष रहा क्या ? उदयकर्मका विपाक विचित्र होता है, किंतु यदि श्रद्धा बदले नहीं तो आत्माका कल्याण हो चुका समझें । रूईका ढेर जल जायेगा - अवश्य । ⭑ (९) सत्पुरुषने कहा है वह सत्य है जी । मैं तो कहता ही नहीं । ज्ञानीने कहा वही कहता हूँ । ज्ञानी किसे कहेंगे ? ' आत्मसिद्धि' में गाथा है, वह "आत्मज्ञान समदर्शिता, विचरे उदय प्रयोग; अपूर्व वाणी परमश्रुत, सद्गुरु लक्षण योग्य. " For Private & Personal Use Only ता. ३-१२-३१ ता. ५-१२-३१ www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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