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________________ विचारणा भक्तिका स्वरूप कहिये । ज्ञानीको पता है । भक्तिके अनेक भेद हैं" श्रवण, कीर्तन, चितवन, वंदन, सेवन, ध्यान; लघुता, समता, एकता, नवधा भक्ति प्रमाण. " ⭑ (१०) जीवकी दशा किससे आवरित है ? मोहसे । मोह किस कारणसे है ? मनके कारण । मनके कारण हुआ, तो बदला कैसे ? बोधसे । बोध क्या ? सत्पुरुषकी वाणी । सत्पुरुषकी वाणी कई बार सुनी, पर मोह क्यों नहीं जाता ? पात्रताके अभावसे । कुपात्र भी सुपात्र होता है । 'जो इच्छो परमार्थ तो करो सत्य पुरुषार्थ ।' अतः एकमात्र पुरुषार्थ ही कर्तव्य है जी । विशुद्ध भावसे, गुरुगमसे समझने पर शल्य जाता है जी । ★ १४९ (११) ता. ८-१२-३१ मैं जानता हूँ वह सब मिथ्या है। ऐसी सद्गुरुकी दृष्टिसे श्रद्धा हुई हो, वे तो विरले ही होते हैं। जो अपनी पकड़को छोड़ते हैं वे जिज्ञासु हैं । ता. ६-१२-३१ "हुं कोण छु ? क्यांथी थयो ? शुं स्वरूप छे मारुं खरुं ?" सद्गुरु कहे सो सही है । पर आजकल तो गुरु अनेक हो गये हैं । 1 पैर रखते पाप है । दृष्टिमें विष है । विष, विष और विष है, ऐसा सोचकर आजके दिनमें प्रवेश कर । वह क्या ? "चेतन जो निजभानमां, कर्ता आप स्वभाव; वर्ते नहि निज भानमां, कर्ता कर्म-प्रभाव. " १. 'खाजा मिठाईका चूरा' (अर्थात् मिठाई जैसे मधुर-रुचिकर ज्ञानीके वचन हैं ।) For Private & Personal Use Only Jain Education International यह बराबर हुआ ? योग्यताकी कमी है। सत्संग, सद्द्बोध, सत्पुरुषार्थ चाहिये । गुरुगमके बिना समझमें नहीं आता। नहीं तो एकदम खुला है । " खाजांनी भूकरी ।' यह आत्मा, यह भी आत्मा । दृष्टि कहाँ ? मात्र दृष्टिकी भूल है । ★ www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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