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पत्रावलि-२
१३३ सुख प्राप्त करतां सुख टळे छे, लेश ए लक्षे लहो,
क्षण क्षण भयंकर भावमरणे कां अहो, राची रहो?'–श्रीमद् राजचंद्र जन्म-जरा-मरणके दुःख भारी हैं। राजा या रंक मृत्यु सबके सिर पर सवार है। उसे टालनेके लिये सत्संगकी आवश्यकता है। सत्संगके अनेक भेद हैं। पर जहाँ आत्माकी ही बात होती हो, कोई भेदी पुरुष हो और वह आत्माके बारेमें बताये तो उसे सुननेसे भी अनेक भव कम हो जाते हैं। अन्यको इसका पता नहीं चलता. पर ज्ञानी जानते हैं।
'आत्माका बल अधिक या कर्मका बल अधिक होगा?'
बल तो आत्माका अधिक है। पर उस सूर्यके सामने बादल आये हुए हों तब सूर्यमें अत्यंत गर्मी होने पर भी वह दिखाई नहीं देता, ढुक जाता है, हवामें ठंडक आ जाती है, किंतु वे बादल दूर हो सकते हैं। इसी प्रकार अभी जीव कर्मोंसे घिरा हुआ है और उसकी सारी शक्ति आवरित है, फिर भी उसका मोक्ष हो सकता है।
बहुत गहन बात कह रहे हैं। आत्मा है, आत्मा नित्य है, आत्मा कर्ता है, आत्मा भोक्ता है, मोक्ष है और उस मोक्षके उपाय हैं-इन छह पद पर बहुत विचार करना चाहिये । 'आत्मसिद्धि शास्त्र में इसका विस्तार किया गया है, जो बहुत विचारणीय है। बड़े-बड़े महाभारत, पुराण या जैन शास्त्रोंकी अपेक्षा 'आत्मसिद्धि में सुगमता और सरलतासे सर्व शास्त्रोंके साररूप बात की गयी है। यह गहन बात विचारवान जीवको बहुत लक्ष्यमें लेनी चाहिये । है छोटीसी पुस्तकके रूपमें, पर चमत्कारी वचन हैं। इसके बारेमें हम अधिक नहीं कहते । वे लब्धिवाक्य हैं, मंत्रस्वरूप हैं। ऋद्धिसिद्धिकी कुछ आवश्यकता नहीं है, पर जन्ममरणके चक्कर समाप्त कर सकें ऐसे ये वचन हैं। कोई समझे या न समझे, फिर भी ये वचन कानमें पड़नेसे भी पुण्यबंध होता है। उसमें आत्मासंबंधी जो बात बतायी है वह मानने योग्य है, श्रद्धा करने योग्य है। उसमें गुरुगमकी आवश्यकता है। वह प्राप्त हो जाये तो जैसे तिजोरीके ताले खुल जाये और जो चाहिये वह निकाला जा सकें, वैसे ही गुरुगमसे आत्माकी पहचान होती है। गुरुगम न हो तो वह वस्तु प्राप्त नहीं होती। तिजोरीके ऊपर हाथ फिराते रहें किंतु अंदरकी वस्तु प्राप्त नहीं होती, वैसे ही गुरुगमरूपी चाबीके बिना स्वरूपकी प्राप्ति नहीं होती।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः
ता.२०-१०-१९३५ कई बार परिश्रम करने पर भी जिस वैराग्य और उपशमकी प्राप्ति नहीं होती, उस वैराग्य आदिकी प्राप्ति सुलभ हो ऐसा महाव्याधिका अवसर आनेपर देहकी और इस संसारकी अत्यंत असारता, अनित्यता और अशरणताका मुमुक्षुओंको प्रत्यक्ष अनुभव होता है और ज्ञानीके वचन अत्यंत सत्य प्रतीत होते हैं। यदि जीव इन देहादि पदार्थोंके स्वरूपका ज्ञानीपुरुषके वचनोंके अनुसार विवेकपूर्वक विचार करे तो अवश्य प्रतीति होगी कि वे अपने नहीं है। अपने हों तो चले क्यों जाते हैं? अनादिकालसे जो जीवका परिभ्रमण हुआ है, वह इनके संयोगसे ही हुआ है, जो अपने नहीं हैं उन्हें अपने माननेसे ही हुआ है और आज भी वही दुःखका कारण है, ऐसा लगे बिना नहीं रहेगा।
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