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पत्रावलि-२
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ता.८-२-१९३६ जीवको जन्म-मरणके दुःख जैसा अन्य कोई दुःख नहीं है। तृष्णा, मूर्छाके कारण जन्म-मरण होते रहते हैं। तृष्णा किसीकी पूरी नहीं हो सकती। चाहे जितनी कमाई की हो तो भी कुछ साथ जानेवाला नहीं है। साढे तीन हाथकी भूमिमें शरीरको जला देंगे। मृत्युका भय सिरपर है। फिर भी जीव ऐसा समझता है कि मुझे मरना ही नहीं है। ऐसा सोचकर आँखें बंद कर आरंभ-परिग्रहमें प्रवृत्ति करता है और रात-दिन कल्पना ही कल्पनामें गूंथा रहता है।
"जहाँ कलपना जलपना, तहाँ मानं दुःखछांय; मिटे कलपना-जलपना, तब वस्तू तिन पाई." "क्या इच्छत ? खोवत सबै, है इच्छा दुःखमूल;
जब इच्छाका नाश तब, मिटे अनादि भूल." यों परमकृपालुदेवने तो पुकार-पुकार कर कहा है, पर जीवने उस पर ध्यान नहीं दिया है। 'कथा सुन-सुन फूटे कान, तो भी न आया ब्रह्मज्ञान।" "तिलक करते तेपन बहे, जपमालाके नाके गये।" यों इस जीवने कुछ ध्यानमें नहीं लिया है। सुना पर गुना नहीं। बातें करनेसे काम नहीं होता। बातोंके बड़ोंसे पेट नहीं भरता। अब तो कुछ जागृत हो, चेत जाये और सत्पुरुषार्थ करे तो कल्याण होगा। 'आत्मा है' ऐसा सुना है, बातें की हैं, पर कुछ अनुभव हुआ? जो करने योग्य है वह इस जीवने किया नहीं है। आरंभ-परिग्रह, विषय, वासना, तृष्णाको कम करनेसे समाधिसुख प्रगट होता है। जीवको मात्र समझनेकी जरूरत है। उसके लिये सत्संग, समाधि, बोध और श्रद्धासहित सत्पुरुषार्थ कर्तव्य है। समभाव कोई अपूर्व वस्तु है! उसको बुलायें, हृदयमें स्थान दें। “सर्वात्ममां समदृष्टि द्यो, आ वचनने हृदये लखो।" समभावकी पहचान, समझ कर लेनी है। "भान नहीं निजरूपनुं ते निश्चय नहीं सार।"
अंतर्मुहूर्तमें समकित, अंतर्मुहूर्तमें केवलज्ञान होता है ऐसा कहा है, वह असत्य नहीं है। मात्र जीवके भाव जाग्रत होने चाहिये। यह किसीके हाथकी बात नहीं है। 'वार करे उसकी तलवार,' 'चतुरकी दो घड़ी और मूर्खकी पूरी जिंदगी।'
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अहमदाबाद, मार्गशीर्ष सुदी, सं. १९९१ हम बयासी वर्षके हो गये। अब इस अंतिम शिक्षाको ध्यानमें लेंगे तो हित होगा। हमारी तरह सेठजीकी भी उम्र हुई है। उन्होंने जैसी दृढ़ता की है वैसी आप सबको करनी है। मिल-झुलकर रहेंगे तो सुखी होंगे। 'जहाँ एकता वहाँ शांति।' जितना कषायका अभाव, उतना ही धर्म समझना चाहिये । भाइयों और बहनोंमें एक दूसरेके प्रति जितना सद्भाव रहेगा, आज्ञाकारिता रहेगी, बड़ोंकी मर्यादा रहेगी, उतनी ही एकता रहेगी। एकताका बल व्यवहारमें-परमार्थमें आवश्यक है। हमें अच्छा न लगता हो तो भी बड़ोंकी भूल हमारे मनमें न बसें वैसे रहना योग्य है। वे कुछ कह भी दें
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