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पत्रावलि - २
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है। अन्य किसी भी प्रकारकी अहंभाव -ममत्वभावकी कल्पना मुझमें न हो । “सत् जो कुछ भी है, वह सत् ही है।” उसमें मुझे अपनी कल्पनाको मिलाकर उसे असत् नहीं बनाना है । वह परम सत् श्री सद्गुरु द्वारा अनुभूत मुझे मान्य है और उसीकी श्रद्धा मुझे रहे ! अभी मुझे सुखदुःखरूप, साताअसातारूप, चित्र-विचित्ररूप जो लगता हैं उसे मुझे नहीं मानना है; परंतु परम आनंदस्वरूप, सर्व दुःखका आत्यंतिक नाश करनेवाला परमात्मस्वरूप मेरा है, उसमें मेरी अडोल स्थिति हो, इस भावनाकी वृद्धि करना योग्य है ।
जब तक यह मनुष्यभव है तब तक सद्गुरुकी आज्ञासे प्रवृत्ति करनेका निश्चय और पुरुषार्थ चालू रखकर समय बिताना चाहिये । सत्पुरुषका योग और सद्द्बोधकी प्राप्ति तभी सफल मानी जायेगी कि जब हम सिंहकी सन्तानकी तरह दुःखके प्रसंगोंमें भी कायर न होकर सिंह जैसी शूरवीरता धारण करें और उनके पदानुसार चलकर उनकी दशाको प्राप्त करनेके भाग्यशाली बनें । 'अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवशे ?' इसका बारंबार यथाशक्य विचार पूर्वक स्मरण - भावना कर, उस दशामें रमण हो ऐसा पुरुषार्थ कर्तव्य है । परिणामकी धारा पर ही बंधमोक्षका आधार है । सद्गुरुके इस बोध पर विचार कर, विभाव परिणतिको रोककर, परमें अर्थात् राग-द्वेष- मोहविषयमें तन्मयता हो जाती है, उसे बलपूर्वक विचार-विचारकर दूर करके आत्मभावनामें भावना रखनेसे परम कल्याण होता है । वृत्तिको रोकना, संकल्प - विकल्प परमें होते रोकना, यह सत्पुरुषकी हि-शिक्षा है । 'श्री सद्गुरुने कहा है ऐसे निर्ग्रथ मार्गका सदैव आश्रय रहे ।'
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