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पत्रावलि-२
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ता.१९-३-३५ एकमात्र सम्यक्त्वकी भावना करनी चाहिये । जीव अनंतकालसे अनंत दोष करता आया है। परंतु यदि इस भवमें सर्व दोष नष्ट करनेके शस्त्र समान समकित प्राप्त हो जाय तो इस कालमें मोक्षप्राप्तिके समान है। जीवको अपनी कल्पना किसी-न-किसी रूपमें विघ्नकारक होती है, उसे टालना चाहिये। एकमात्र परमकपालदेव श्रीमद राजचंद्र प्रभुको गरु मानें। वे ही महान अवलंबनरूप हैं, 'यात्री जहाज हैं। हम तो उन्हींकी भक्ति करते हैं और इस निर्भय मार्गको ढूँढकर उन्हींका अवलंबन लेकर निःशंक सत्य माननेको कहते हैं। एक यही दृष्टि करनी चाहिये । इसमें अपनी कल्पना जोड़कर कोई हमें, कोई पोपटलालभाईको या चाहे जिस अन्य उपासकको उपास्यरूपसे मानेगा तो उसको स्वच्छंदसे माननेका फल वैसा ही मिलेगा। किसी बात करनेवालेको चिपक न जाये। वह जैसा बताये, जो आज्ञा करे तदनुसार यदि हमारे भाव होंगे तो वाळयो वळे जेम हेम' ऐसी दशा आने पर जीवकी योग्यता बढ़ेगी। नूरभाई पीरभाई कहकर जिसने अपनी मतिकल्पना खड़ी रखी है वह अभी स्वच्छंदका वेदन करता है। एकमात्र परमकृपालुदेवकी भक्ति परम प्रेमसे करनी चाहिये। उसमें सब ज्ञानी आ जाते हैं, सब ज्ञानियोंके उपासक महापुरुष भी आ जाते हैं, स्वयं भी बाकी नहीं रहता।
आपने अनेक बार सुना होगा फिर भी यह विशेष विचारणीय है। इसे ध्यानमें रखकर सत्पुरुषकी दृष्टिसे भावना-भक्ति करनी चाहिये। अधिक क्या? 'आणाए धम्मो, आणाए तवो।' 'आज्ञाका आराधन ही धर्म है और आज्ञाका आराधन ही तप है।' हे भगवान! अब भूल न रहें!
और अल्प साधन हो सकें तो अल्प, पर यथार्थ हों, यही भाव निरंतर रखना चाहिये । स्वयं अपना काम कर लेना योग्य है। अपने दोष देखकर उनका पश्चात्ताप कर उन्हें दूर करना चाहिये तथा सद्गुरु शरणसे जो हो उसे देखते रहना चाहिये।
२“हुं माझं हृदयेथी टाळ, परमारथमां पिंड ज गाळ.'
श्री आबू, चैत्र वदी ४, सं. १९९१ जिसका महाभाग्य होगा और जिसका भला होना सर्जित होगा, उसे सत्पुरुषके दर्शन, समागमका लाभ प्राप्त होगा और अपूर्व माहात्म्य समझमें आयेगा।
बीस दोहे, क्षमापनाका पाठ, आत्मसिद्धि और छह पदका पत्र, इन अमूल्य बातोंको हृदयमें लिखकर गहरी समझ करने योग्य हैं। इनमें सर्व शास्त्रोंका सार आ जाता है। जीव प्रतिसमय मर रहा है। अतः जितना समय वे वचन सुननेमें बीते, उनके चिंतनमें बीते, वह जीवकी मृत्यु सुधारनेवाला समाधिमरणका कारण है।
मन कैसे वशमें हो? भेदविज्ञान ही मनको वश करनेका उपाय है। उसके लिये सत्संग और + मूल गुजराती पाठ 'सफरी जहाज' १. अर्थ-स्वर्णकी तरह जैसा मोड़ा जाय वैसे मुड़ता है। २. अर्थ-अहंभाव और ममत्वभावको हृदयसे निकाल दे और परमार्थमें ही इस देहका उपयोग कर।
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