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उपदेश
और इसके मिलने पर, इसको सुनने पर और इस पर श्रद्धा करनेसे ही छूटनेकी बातका आत्मासे गुंजार होगा ।" इतनेमें जीव समझे तो अपना क्या कर्तव्य है वह समझमें आ जाता है । जीव आँखें मींचकर दौड़ा है, अर्थात् स्वच्छंदसे प्रवृत्ति की है । उसे रोकनेके लिये किसीकी आज्ञा लेने गया तो आज्ञा देनेवाला अज्ञानी और स्वच्छंदी मिला । अतः रक्तसे भीगा वस्त्र जैसे रक्तसे धोने पर स्वच्छ नहीं हो सकता, वैसे ही स्वच्छंदी पुरुषकी आज्ञा स्वच्छंदका नाश नहीं कर सकती । अतः ज्ञानीके पाससे ज्ञान प्राप्त करना योग्य है ऐसा निश्चय कर, मुझे ज्ञानीपुरुषकी प्राप्ति कब होगी ऐसी भावना कर्तव्य है; और ज्ञानीका योग प्राप्त होने पर मुझे तीनों योगसे उनकी आज्ञाका ही पालन करना है ऐसा दृढ़ निश्चय कर्तव्य है । अपनी मान्यता, कल्पना या दुराग्रहको दूर कर सर्वार्पणतासे सत्पुरुषकी आज्ञाके पालनसे ही मेरा कल्याण होगा, ऐसा मानकर आज्ञाकी भावना निरंतर कर्तव्य है जी । एकमात्र आत्मप्राप्तिका ही लक्ष्य रखकर उसके साधनरूप ज्ञानीपुरुषका योग और उनकी आज्ञापालनकी तत्परतारूप सद्व्यवहारके लिये जीव पुरुषार्थ करे तो इस मनुष्यभवमें वैसा होना संभव है जी । यहाँ इतना हो सकता है । भगवानने मनुष्यभव दुर्लभ कहा है, किन्तु यदि उसमें यह न हुआ और परकथा तथा परवृत्तिमें यह भव निरर्थक चला गया तो उसका मूल्य फूटी कौड़ी जितना भी मानने योग्य नहीं है ।
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ज्येष्ठ सुदी २, सं. १९८९
जीवको महाबंधन और परिभ्रमणका बड़ा प्रबल कारण स्वच्छंद है और उद्धारका उपाय भी स्वच्छंदको रोकना है। छोटे बालककी भी यह इच्छा रहती है कि उसकी इच्छानुसार कार्य हो; और इच्छित नहीं होता तो कलह करता है तथा रूठनेके बाद उसके कहे अनुसार करने पर भी वह ठ नहीं छोड़ता । पहले मेरी इच्छानुसार क्यों नहीं किया, ऐसी हठ करके घरके सब लोगोंको संतापकारी होता है । वैसे ही जीवको यदि अपनी इच्छाकी डोरको ढीला छोड़कर, अन्यके कहे अनुसार भले ही हो ऐसा करनेका अभ्यास डालना हो तो वह भी हो सकता है । और यदि ऐसी आदत पड़ जाय तो अन्य सबको सुखकारी लगती है और स्वयंको कषायकी मंदता होनेसे बहुत लाभ होता है; तप करनेसे भी वह अधिक है । परंतु किसीकी बात न मानकर अपनी इच्छानुसार ही करे तो उससे स्वच्छंदके पोषणकी आदत पड़ती है ।
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घर-घरमें मिट्टीके चूल्हे होते हैं, इसी प्रकार सभी जीव दोषसे तो भरे हुए ही हैं। पर किसीमें एकाध ऐसा गुण होता है कि वह सभी दोषोंको ढँक देता है और समकितका प्रभाव तो ऐसा है कि सब अवगुणोंको गुणमें बदल देता है ।
"व्रत नहीं, पचखाण नहि, नहि त्याग वस्तु कोईनो; महापद्म तीर्थंकर थशे, श्रेणिक ठाणंग जोई लो."
कोई व्रत - नियम आदि न हो सके तो भी जिसे समकित है उसकी दृष्टि ही बदल गई है । उसे आत्माका साक्षात्कार है । और जहाँ आत्मा है वहाँ नौ निधान है । वहाँ विकार नहीं, राग नहीं, द्वेष नहीं, मोह नहीं और बंधन भी नहीं है ।
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