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पत्रावलि-२
१२५ परंतु उस सम्यक्त्वके लिये पुरुषार्थ करना चाहिये । सदाचार, सत्संग, सद्भावना कर्तव्य है। बुरे बुरे भाव होते हों और कहें कि मुझे सम्यक्त्व है, तो ऐसा कहनेसे कुछ होता नहीं। ब्रह्मदत्त पूर्वभवमें निदानकर चक्रवर्ती हुआ था, किन्तु बुरे भाव रहनेसे उसे नरकमें जाना पड़ा। भाव और परिणाम बहुत महत्वके हैं। स्त्रीको छोटी उम्रमें माता-पिताका अंकुश होता है, जवानीमें पतिका अंकुश होता है और पति न हो तो पुत्रके कहे अनुसार चलना चाहिये ऐसा शास्त्रमें कहा है। इस प्रकार स्वच्छंदको रोकना हितकारी है। परमकृपालुदेवने भी लिखा है कि "मुझ पर सभी सरल भावसे हुक्म चलायें तो मैं प्रसन्न हूँ।" "रोके जीव स्वच्छंद तो, पामे अवश्य मोक्ष।" अन्य सब भावोंका फल मिलता है, तो सम्यक्त्व प्राप्तिके ही जिसे बारंबार भाव होते हैं उसे उन भावोंका फल क्यों नहीं मिलेगा? चाहे जो हो तथापि मुझे इस भवमें तो एक समकित प्राप्त करना ही है, ऐसा जिसने निर्णय किया हो और उस निर्णयके पोषक सत्संग आदि साधनोंका सेवन करता हो तो उसे वह अवश्य मिलेगा ही। आत्मा कहाँ रहता है? सत्संगमें रहता है। सत्संग-सत्संग तो बहुत करते हैं, पर नाम लक्ष्मी, नाम धनपाल, ऐसे नहीं, किन्तु यथार्थ सत्संग जहाँ है वहाँ आत्मा है। उस आत्माकी पहचान, प्रतीति और अभ्यास कर्तव्य है।
निरंकुश पशु जैसे विष्टाहार करनेको भटकता है, वैसे ही मन विषय-कषायरूप मलमें भटकता रहता है। ऐसी मलिन वृत्तियाँ मनमें उठते ही उन्हें शत्रु समझकर उनका तिरस्कार करें, धिक्कार कर निकाल दें। यदि बार-बार अपमानित होंगी तो वापस नहीं आयेंगी। किन्तु यदि उन्हें सन्मानआदर दे दिया, उनमें मधुरता मान बैठे और क्षमा, शांति, धैर्य आदिको बार बार न बुलाया तो दुर्मतिकी शक्ति बढ़ जायेगी और मोह दुर्गतिके कारणोंको एकत्र कर जीवको अधोगतिमें घसीट ले जायेगा। किसीको यह छोटा है, यह बड़ा है, यह अच्छा है, यह बुरा है, गरीब है, धनवान है, स्त्री है, पुरुष है ऐसी दृष्टिसे देखना उचित नहीं। परायी पंचायतमें जीव समय खो रहा है। अनेक पापियोंका उसी भवमें मोक्ष हुआ है और पंडित भटकते रह गये हैं।
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ता.८-६-३३ सत्पुरुष जो हमारे हितकी बात करते हैं वह भुलाने जैसी नहीं होती। परमकृपालुदेवकी भक्ति, गुणगान करनेको वे हमें कहते हैं, यह उनका महान उपकार है। परम उपकारीका उपकार भूलने योग्य नहीं है, परंतु उनकी आज्ञाका पालन न करे और अपने स्वच्छंदसे चाहे जितनी भक्ति करें, उनके गुणगान करें यह सब दिखावा है। कोई शिष्य सद्गुरुकी कायासे सेवा करता हो, पैर दबाता हो, सिर दबाता हो किन्तु उनका कहना न मानता हो, उनके वचनके विरुद्ध आचरण करता हो, तो हाथसे तो वह गुरुके चरणकी सेवा करता है परंतु आचरणसे गुरुकी जीभ पर पैर रखता है, उनकी आज्ञाका लोप करता है; तो ऐसे शिष्यका कल्याण कैसे होगा?
संसार परसे आसक्ति उठाकर परमकृपालुदेव पर, उनके वचन पर करें। उनकी मुखमुद्रा, उनके बताये ‘स्मरण', 'बीस दोहे', 'क्षमापनाका पाठ', 'छः पदका पत्र', 'आत्मसिद्धि' आदि अपूर्व हितके कारणस्वरूप जो सत्साधन हैं, उनका सेवन निरंतर करना चाहिये जी। फिर अपने दोष
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