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पत्रावलि-२
११७ पिछले जन्मोंके कितने अधिक पुण्य एकत्रित हुए हों तब सत् वस्तुकी प्राप्ति होती है। वैसा न हो तो उतनी आमदनी होने तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है, पुरुषार्थ विशेष जागृत करना पड़ता है। "जो इच्छो परमार्थ तो, करो सत्य पुरुषार्थ" ऐसा 'आत्मसिद्धि में परमकृपालुदेवने कहा है, उसके अनुसार पुरुषार्थकी अभी आवश्यकता है।
- "विशाल बुद्धि, मध्यस्थता, सरलता और जितेन्द्रियता, इतने गुण जिस आत्मामें हों वह तत्त्व पानेके लिये उत्तम पात्र है।"
इनमेंसे प्रथमके तीनमें मुख्यतः परभवकी कमाई लगती है और चौथा कारण जितेन्द्रियता इस भवके पुरुषार्थके अधीन है । उसे प्राप्त करनेके लिये जो कमर कसे, वह पात्रताका पात्र बनता है। "पात्र थवा सेवो सदा ब्रह्मचर्य मतिमान" इस गंभीर वाक्यको लक्ष्यमें रखकर अभी तो प्रथम सोपानके रूपमें रसकी लोलुपताका त्यागकर, आहारमें रस पैदा हो ऐसे पदार्थोंमेंसे चित्तको पीछे मोड़कर नीरस आहार लेनेकी आदत डालनी चाहिये। जिन पदार्थों में जीभको आनंद आता हो, मोह होता हो, वैसे पदार्थोंका अपरिचय, अनभ्यास, त्याग करनेकी वृत्ति रखनेसे रसपरित्याग या स्वादपर विजय प्राप्त करनेसे आत्माको बहुत अवकाश प्राप्त होने योग्य है। उससे बोध परिणमित होनेका कारण बनता है।
सभी शास्त्रोंका सार यही है कि किसी ज्ञानीपुरुषको ढूंढकर उसके वचनमें विश्वास कर, उसकी आज्ञाका पालन करनेका पुरुषार्थ करना चाहिये। ज्ञानीपुरुषसे ज्ञानकी याचना करनेकी अपेक्षा भक्तिकी कामना करना विशेष हितकारी है, ऐसा ज्ञानीपुरुषोंका अनुभवकथन है, उस पर विचार कीजियेगा।
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आश्विन वदी ८, सं. १९८७ जो-जो जन्मे हैं उन सबकी किसी न किसी निमित्तसे मृत्यु तो अवश्य होनी ही है। महा अतिशयधारी श्री तीर्थंकर जैसे भी इस नाशवान शरीरको अविनाशी नहीं बना सके, तो आयुष्य समाप्त हो जाने पर मृत्युको रोकनेमें अन्य कोई समर्थ है ? काल सिर पर मँडरा रहा है । प्राण लिये या लेगा ऐसा हो रहा है। फिर यह जीव किस समयकी प्रतीक्षा कर रहा है, यह विचार करने योग्य है। देर-सबेर हमें भी इस मृत्यु-परीक्षामें होकर जाना पड़ेगा, यह सोचकर समाधिमरणकी तैयारीरूप सद्विचार, कषायकी मंदता या क्षय, मोह और देहाध्यासका त्याग आदिके लिये निवृत्ति द्रव्य, निवृत्ति क्षेत्र, निवृत्ति काल और निवृत्ति भावका सेवन, सत्संग, संतसमागम, सत्पुरुष और उनकी वाणीका सन्मान, वैराग्य-उपशम आदिका आराधन आजसे हमें कर लेना चाहिये। यदि यह शेष भव सम्यक्त्वरूप धर्मके आराधनमें व्यतीत किया जाय तो अनेक भवोंका प्रतिफल मिलने जैसा है जी।
महापुरुषोंने आयुष्यकी अंतिम घड़ीको ही मृत्यु नहीं कहा है, पर क्षण-क्षण आयुष्यकी डोर कम होती जा रही है वह-वह क्षण यदि विभावमें बीता तो वह मृत्यु ही है। जिसकी विभाव परिणति रुकी नहीं है, उन्हें ज्ञानीपुरुषोंने चलता-फिरता मुर्दा ही कहा है। जितना समय
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