________________
पत्रावलि-१
५५ परभावकी बातमें चित्तको न लगावें । जीवको परभावमें ढीला छोड़ेंगे तो वह सत्यानाश कर देगा। अतः उसे स्मरणमें लगायें, क्योंकि यह देह क्षणभंगुर है, इसका कुछ भरोसा नहीं है। लिया या लेगा ऐसा हो रहा है। अतः अच्छी भावनामें, अच्छे निमित्तोंमें मनको जोड़ें। पू.भगवानभाई छोटी उम्रमें इस क्षणभंगुर देहका त्याग कर चले गये, ऐसे ही कोई इस संसारमें रहनेवाला नहीं है। अतः यथाशक्य सत्पुरुषार्थ कर्तव्य है। चित्तको अच्छा नहीं लगता ऐसी कल्पना होती है, वह भ्रम है, मिथ्या है; अतः आत्मसिद्धिके अर्थका वाचन चिंतन करियेगा। सर्व मुमुक्षुभाइयोंको भी यही कर्तव्य है।
__ जो असाता वेदनी पूर्वबंधके कारण आती है, उसे सर्व ज्ञानियोंने समभावसे धैर्यपूर्वक भोगा है, जिससे वे मुक्त हुए हैं। देहसे आत्मा भिन्न है। वेदनी देहके कारण है । वह सब शरीरके कारण है। अतः उसका समय पूरा होने पर वह छूट जायेगी। आत्मा सत्स्वरूप है, उसका कभी नाश नहीं होता यों जानकर सहन करनेमें समय व्यतीत करें।
"मोही बांधत कर्मको, निर्मोही छूट जाय यातें गाढ़ प्रयत्नसे, निर्ममता उपजाय. परिषहादि अनुभव बिना, आत्मध्यान प्रलाप; शीघ्र ससंवर निर्जरा, होत कर्मकी आप. 'ईत चिंतामणि महत, उत खल टूक असार;
ध्यान उभय यदि देत बुध, किसको मानत सार?" "आत्महित जो करत है, सो तनको अपकार; जो तनका हित करत है, सो जियको अपकार. कटका मैं करतार हूँ, भिन्न वस्तु संबंध; आपहि ध्याता ध्येय जहां, कैसें भिन्न संबंध? मरण रोग "मोमें नहीं, तातें सदा निःशंक; बाल, तरुण नहीं वृद्ध हूँ, ये सब पुद्गल अंक. प्रगट पर देहादिका, मूढ करत उपकार; सुजनवत् या भूलका, तज कर निज उपकार. मैं इक निर्मम शुद्ध हूँ, ज्ञानी योगी गम्य; कर्मोदयसे भाव सब, मोतें पूर्ण अगम्य."
८४ पेथापुर, फाल्गुन वदी ६, सोम, १९८१ परमकृपालुका मार्ग जयवंत हो यही हमारी दृष्टि है जी। काल सिर पर घूम रहा है। लिया या लेगा ऐसा हो रहा है। इसमें अब किसी प्रकारकी इच्छा नहीं रही। ऐसा हो या वैसा हो यह सब देखते रहेंगे। अब वृद्धावस्थाको देखते हुए जो करना है वह तो परम कृपालु देवाधिदेवने संपूर्ण दे दिया है जी। अतः तैयार होकर बैठे हैं। मृत्युको जब आना हो-जब दिखाई दे-तब तैयार है।
१. अर्थ-इस ओर महान चिंतामणि रत्न है और दूसरी ओर असार खलीका टुकड़ा है। यदि विवेकी दोनों ओर ध्यान देता है तो उसमें किसको सारभूत (उत्तम) मानेगा? २. जीवको ३. चटाईका ४. मुझमें
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org