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पत्रावलि-१ समभावसे वर्तमानमें रहनेका पुरुषार्थ करना चाहिये । जीव भविष्यकी कल्पना कर व्यर्थ कर्म बाँधता है, इसका कारण आशा, वासना, तृष्णा है जिससे जन्म-मरण खड़े होते हैं। अतः वासनाका त्याग कर मोहरहित होकर रहना सीखना है। हमारा सोचा हुआ कुछ भी होता नहीं, अतः भविष्यकी चिंता भी छोड़ देना योग्य है।
"गई वस्तु शोचे नहीं, आगम वांछा नाहि; वर्तमान वर्ते सदा, सो ज्ञानी जगमांहि."
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भाद्रपद,सं. १९८७ त्याग, वैराग्य, उपशमभाव बढ़े और संसारसे उदासीनता हो, संसारकी मायाकी तुच्छता समझमें आये, लौकिक बड़प्पन विष, विष और मात्र विष है ऐसा भाव हो, तथा लोकोत्तर दृष्टि अर्थात् आत्माको सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्रकी प्राप्ति हो ऐसे पुरुषार्थको बढ़ाना ही मनुष्यभवका कर्तव्य है।
सद्गुरुकृपासे उदयाधीन वेदना समभावसे भोगनेकी भावनामें यथासंभव प्रवृत्ति हो रही है।
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सं.१९८७ तत् ॐ सत् सहजात्मस्वरूप
परमगुरु "आतमभावना भावतां जीव लहे केवलज्ञान रे" जीव लहे केवलज्ञान रे। दया, समता, क्षमा, धैर्य, समाधिमरण, समभाव, समझ।
शांतिः शांतिः अप्रतिबद्ध, असंग, ज्ञान-दर्शन-चारित्र, आत्मा, उपयोगी अप्रमत्त हो, जागृत हो, जागृत हो। प्रमाद छोड़, स्वच्छंदको रोककर पुरुषार्थ कर्तव्य है जी। जूआ, मांस, मदिरा, बड़ी चोरी, वेश्यागमन, शिकार, परदारागमन इन सात व्यसनोंका त्याग कर्तव्य है।
समभाव।
१४० श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगास सं.१९८७
तत् ॐ सत् "इन्द्रीनसें जाना न जावे, तू चिदानंद अलक्ष्य है, स्वसंवेदन करत अनुभव-हेत तब प्रत्यक्ष है। तन अन्य जन जानो सरूपी, तू अरूपी सत्य है, कर भेदज्ञान, सो ध्यान धर निज, ओर बात असत्य है."
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