________________
११४
उपदेशामृत
१ + चत्तारि परमंगाणि दुल्लहाणीह जंतुणो ।
माणुसतं सुइ सद्धा, संजमम्मि य वीरियं ॥ (उत्तरा०३/१)
भावार्थ- मोक्षप्राप्तिके चार उत्कृष्ट अंग हैं : (१) मनुष्यभव (२) श्रुत ( सत्पुरुषके मुखसे निसृत वाणी ) का श्रवण, (३) सद्धर्म पर श्रद्धा, (४) संयममें बलवीर्य स्फुरित करना । ये चार महान कारण इस संसारमें जीवोंको मिलने दुर्लभ हैं ।
२. अहमिक्को खलु सुद्धो, निम्ममओ णाणदंसणसमग्गो ।
त िठिओ तच्चित्तो, सव्वे एए खयं णेमि ॥ ( समय०७३ ) भावार्थ - मैं एक हूँ, परपुद्गलसे भिन्न हूँ, निश्चयनयसे शुद्ध हूँ, अज्ञान - मैलसे न्यारा हूँ, ममतासे रहित हूँ, ज्ञानदर्शनसे पूर्ण हूँ, मैं अपने ज्ञानस्वभाव सहित हूँ, चेतनागुण मेरी सत्ता है, मैं अपने आत्मस्वरूपका ध्यानकर सर्व कर्मका क्षय करता हूँ ।
३. झाइ झाइ परमप्पा, अप्प समाणो गणिज्जइ परो वि । उज्झइ राग य दोसो, छिज्जइ तेण संसारो ॥
भावार्थ- परमात्मस्वरूपका ध्यान धरो, ध्यान धरो । अन्यको भी अपने आत्माके समान मानो । राग और द्वेषका त्याग करो। इससे संसारका बंधन नष्ट होता है ।
४. मा मुज्झह मा रज्झह मा दुस्सह इट्ठणि अत्थे ।
थिरमिच्छह जइ चित्तं विचित्तझाणप्पसिद्धिए ।। (द्रव्य०४८)
भावार्थ - हे भव्यजनों! यदि तुम अनेक प्रकारके ध्यान- धर्म, शुक्ल आदि या निर्विकल्प ध्यान - के लिये चित्तको स्थिर करना चाहते हो तो इष्ट-अनिष्टरूप इंद्रियोंके विषयोंमें मोह न करो, राग न करो, द्वेष न करो ।
Jain Education International
५. मा चिट्ठह मा जंपह मा चिंतह किं वि जेण होइ थिरो ।
अप्पा अप्पम्मि रओ इणमेव परं हवे ज्झाणं ॥ ( द्रव्य०५६)
भावार्थ - हे ज्ञानीजनों! तुम कुछ भी चेष्टा न करो अथवा कायाकी प्रवृत्ति न करो, कुछ भी बोलो नहीं, कुछ भी विचार न करो कि जिससे तुम्हारा आत्मा आत्मामें स्थिर हो जाय; क्योंकि आत्मामें तल्लीन होना ही परम ध्यान है ।
६. खामेमि सव्व जीवा, सव्वे जीवा खमंतु मे । मित्ति मे सव्व भूएसु, वेरं मज्झं न केाइ ॥
भावार्थ - मैं सब जीवोंसे क्षमायाचना करता हूँ । सब जीव मेरे अपराधको क्षमा करें। मेरा सब जीवोंसे मैत्री भाव है । किसीके प्रति भी मेरा वैरभाव नहीं है ।
इस पत्रमें लिखी उपरोक्त छहों गाथाओंको कण्ठस्थ करें और उनका जो अर्थ हैं उस पर चिंतन करें, इतना लक्ष्य रखें ।
+ चारों ही अंग दुष्प्राप्य जीवोंको जगमें अति, मनुष्यत्व, श्रुति, श्रद्धा, संयममें वीर्य- स्फुरणा.
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org