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पत्रावलि-१ १“संग परिहारथी स्वामी निज पद लहूं, शुद्ध आत्मिक आनंद पद संग्रह्यु; जहवि परभावथी हुं भवोदधि वस्यो,
परतणो संग संसारताए ग्रस्यो ." समझें, समझकर समा जायें।
सुबहमें उठकर श्री सत्पुरुषके दर्शन करें। फिर निवृत्तियोग प्राप्तकर एक आसन पर स्थित हो जायें। उस समयमें प्रथम मंत्र (परमगुरु) का स्मरण कर माला फेरें, अथवा ध्यान या भक्तिके दोहे 'हे प्रभु, हे प्रभु' में अनुकूल योगसे जितना अवकाश मिले उतने समय तक वृत्तिको रोककर उपयोगकी जागृति पूर्वक प्रवर्तन करें। सद्वृत्तिका अनुसंधान करें। कायोत्सर्गमें रटन, स्मरण, ध्यान, ज्ञान-दर्शन-चारित्र (जानना-देखना-स्थिरता), सद्विचार कर्तव्य है जी।
'सर्वव्यापक सत्-चित्-आनंद ऐसा मैं आत्मा एक हूँ,' ऐसा चिंतन करें, ध्यान करें। उदयके धक्केसे जब-जब वह ध्यान छूट जाये तब तब उसका अनुसंधान बहुत शीघ्रतासे करें।
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श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगास यह जीव अनादिकालसे अपनी मतिकल्पनासे धर्म मानकर धर्माराधन करनेका प्रयत्न करता है जी, जिससे मूल धर्मको प्राप्त नहीं कर सका। अनंत जीव मिथ्या मोहके कारण अनंत संसारमें परिभ्रमण करते हैं, वह उनकी स्वच्छंद कल्पनाका फल है। जिनागममें वर्णित उस भूलको ज्ञानीपुरुषोंने देखा, चिंतन किया और उसे दूरकर अपने निजभाव मूल धर्म सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्रमें स्वयं परिणत हुए हैं। हमें भी वही करना है।।
निम्नलिखित वचन विशेषतः आत्मार्थी जीवोंको लक्ष्यमें लेने जैसे हैं, बारंबार विचारणीय हैं, प्रतिदिन स्मृतिमें, ध्यानमें, भावनामें लेने योग्य हैं
"उष्ण उदक जेवो रे आ संसार छे;
तेमां एक तत्त्व मोटुं रे समजण सार छे." महापुरुषोंने उस पर ध्यान दिया है। इससे जीवका कल्याण होता है। गहन बात है। ध्यानमें रखने जैसी है। पुराना छोड़ने जैसा है। कुछ कहने जैसा नहीं है। काल क्षण-क्षण बीत रहा है, वह वापस लौटकर नहीं आता। यह जीव किस कालकी प्रतीक्षा कर रहा है? ऐसा सोचकर अपने जीवनमें उस भावमें-आतम सत्स्वरूप शुद्ध आत्माकी पहचान, प्रतीति, श्रद्धा, आज्ञा भावपूर्वक-लक्ष्य रखें तो संगका फल अवश्य मिले बिना नहीं रहेगा। ___ 'मनके कारण यह सब है' अतः चित्तवृत्तिको किसी सत्पुरुष द्वारा कहे गये वचनमें प्रेरितकर काल व्यतीत करने योग्य है जी। वे ये हैं
१. अर्थ-श्री देवचंद्रजी धर्मनाथ स्वामीके स्तवनमें कहते हैं कि आप प्रभुने संग(परिग्रह)का त्याग करके निज आत्मपदको प्राप्त किया है और अनंत आनंदरूप शुद्ध आत्मस्वरूपमें लीन हुए हैं। इसके विपरीत मैं परभावमें प्रीति होनेसे परसंगमें फंसा रहकर संसारसमुद्रमें डूबा हुआ हूँ।
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