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उपदेशामृत रहनेवाला नहीं है। वृत्तिको रोकें । आत्मभावना, निजस्वभावमें परिणाम समय समय पर लावें, परभाव-विभावसे यथाशक्ति रोकें । यह जीव निमित्ताधीन है, अतः साधक निमित्तमें संलग्न होनेका पुरुषार्थ करना चाहिये। प्रमाद करनेसे जीव दुःख खड़ा करता है। उस प्रमादको छोड़नेके लिये सत्पुरुषके वचनामृत पर विचार करना चाहिये। क्षण क्षण काल बीत रहा है, वह वापस नहीं आता। लिया या लेगा यों हो रहा है, काल सिर पर सवार है। फिर यह जीव किस कालकी प्रतीक्षा कर रहा है? यह विचारणीय है। "फिकरका फाँका भरा, उसका नाम फकीर।" सत्संगका बहुत अंतराय है। अतः उदास न होते हुए उदासीनता (समभाव) कर्तव्य है। घबराने जैसा नहीं है। मार्ग बहुत सुलभ है। किन्तु जीवको जहाँ वृत्ति रखनी चाहिये, जोड़नी चाहिये, प्रेम करना चाहिये, उसमें जीव मिथ्यात्व-अज्ञानसे, प्रारब्ध-उदयके आवरणसे दिशामूढ़ हो गया है। अतः थोड़ा अवकाश मिकालकर सत्पुरुषके वचनामृतमें गहन विचारसे ध्यान, अंतरभावमें आना, अंतरभावमें अधिक रुकना चाहिये। बाह्यभावके निमित्त कारणसे वृत्ति डिग जाती है, उसकी जागृति रखकर एक शुद्ध ज्ञान-दर्शन-चारित्रमय आत्मा है, उसीमें प्रेम-उपयोग रखकर अपने स्वभावमें सदा मग्न रहना चाहिये। अन्य सब भूल जाने जैसा है। "क्षण क्षण बदलती स्वभाववृत्ति नहीं चाहिये।"
"सुख दुःख मनमां न आणीए" “जीव तुं शीद शोचना धरे? कृष्णने करवू होय ते करे।" मनुष्यभव दुर्लभ है। "होनहार बदलेगा नहीं और बदलनेवाला होगा नहीं।" ऐसा दृढ़ निश्चय कर जीवको जो करना है वह है एक मात्र दृढ़ श्रद्धा। इस विषयमें सत्संग-समागममें सुनकर, जानकर, एक उसीका आराधन किया जायेगा तो अनेक भवोंकी कसर निकल जायेगी। वह भी किये बिना नहीं होगा। यदि यह जीव प्रमादमें, गफलतमें समय बिता देगा तो पीछे पछताना होगा, खेद होगा। अतः हो सके तो कोई पुस्तक, परमकृपालुदेवके वचनामृत पढ़ते रहना चाहिये।
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अंधेरी, वैशाख सुदी १५, १९८७ "सेवाथी सद्गुरुकृपा, गुरुकृपाथी ज्ञान; ज्ञान हिमालय सब गळे, शेषे स्वरूप निर्वाण. ए संकलना सिद्धिनी, कही संक्षेपे साव; विस्तारे सुविचारतां, प्रगटे परम प्रभाव. अहो! जिय चाहे परमपद, तो धीरज गुण धार; शत्रु-मित्र अरु तृण-मणि, एक ही दृष्टि निहार. राजा राणा छत्रपति, हथियनके असवार;
मरना सबको एक दिन, अपनी अपनी वार." उदयकर्ममें भी घबराना, अकुलाना नहीं चाहिये। समभावसे भोग लेना चाहिये जी। 'मोक्षमाला के सभी पाठ कंठस्थकर विचारणीय हैं जी। जीव अकेला आया है और अकेला ही जायेगा और अपने किये हुए कर्मोंको अकेला ही भोगेगा। ऐसा सोचकर अहंभाव-ममत्वभाव घटाकर, धर्मस्नेह रख, उल्लास भावमें आनंदमें रहना चाहिये जी। जो हो चुका है वह अब अनहोना नहीं हो सकता, अतः भूतकालकी चिंता छोड़कर, की हुईं भूलें दुबारा न हो इतना उपयोग रखकर,
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