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पत्रावलि-१
९५ करें। हमें कोई दुःख दे, अभाव करे, अपमान करे तो उसका सच्चा उपकार समझें; हमारे बाँधे हुए कर्म छुड़ानेमें वह हमारी मदद कर रहा है, उसके बिना वे छूटनेवाले न थे, यों सुल्टा सोचें। इससे भी अधिक दुःख भले ही आवे, पर घबरायें नहीं। जीवने नरकमें क्या कम दुःख भोगे हैं? उनकी तुलनामें तो यहाँ कुछ भी नहीं है। मात्र अंतराय (प्रकृति) न टूटनेसे दुःख लगता है, उससे घबराये नहीं। आप ऐसे वैसे नहीं हैं। संसार कुछ भी कहे, उसके सामने न देखें। सबके साथ एकता रखें। कुछ समझ नहीं है, कुछ समझता नहीं है, ऐसा कहे तो भी समतासे सहन करें। मान जीवका बुरा करता है, मान शत्रु है। अन्यकी ओरसे अधिक सम्मान मिलता हो या अन्य जीव पर अधिक प्रेम करे तो वह राग बंधका कारण है, और द्वेष करे तो वह भी बंधका कारण है। अतः बंधके हेतुभूत किसीके राग या प्रेमकी इच्छा समझदार जीव नहीं रखते । किन्तु समभाव रखकर, जाना-अनजाना कर समतासे सहन कर लेते हैं। अतः उस मानका त्यागकर, सबसे छोटे बनकर, मानों कुछ समझता ही न हों इस प्रकार रहें। कोई कुछ शिक्षा दे तो उसे कहें कि आपका कथन सत्य है। आत्महित होता हो तो वैसे कर लेवें, पर कोप न करे, गुस्सा न करें।
"अधमाधम अधिको पतित, सकल जगतमां हुंय;
ए निश्चय आव्या विना, साधन करशे शुंय?" इत्यादि बीस दोहें, क्षमापनाका पाठ, आलोचना, सामायिक पाठ, हो सके तो दिनमें पाव-आधा घंटा अवकाश निकालकर पढ़ें।
किसीको कुछ कहना पड़े तो धैर्यसे कहें। कुछ घबराकर, चिड़कर, कुपित होकर न कहें। सबके साथ मैत्रीभाव रखें। स्थान-स्थान पर पहचान रखें। नम्र बनें और सबके साथ हिल-मिलकर रहा जाय वैसा करें। एकता टूटे वैसा न करें। किसीको क्रोध आया हो और वह कुपित होकर बोले तो भी उसे धैर्यसे, समतासे, 'माँ, भाई' कहकर, उसका क्रोध मिट जाय वैसा व्यवहार करें। जैसे अच्छा लगे वैसा करें। खींचतान, खेचाखेंच न करें। उसे ऐसा कहें कि आप समझदार हैं। माता हो तो उस पर क्रोध न करें। जिस प्रकार उसका क्रोध चला जाये और वह प्रसन्न हो वैसा करें। इस भवका ही संबंध है फिर तो 'वन वनकी लकड़ी'। अकेला आया और अकेला ही जायेगा। कोई अपना स्त्री, पुत्र, माता, पिता हुआ नहीं, हैं नहीं, होगा नहीं। यदि क्षमा नहीं करेंगे और कषाय अर्थात् क्रोध, वैरभाव करेंगे तो फिरसे नये कर्म बँधेगे। अतः सच्चा उपाय समता, क्षमा है, वही गुप्त तप है। मनुष्यभव प्राप्त किया है, वह चिंतामणिके समान है। उसमें सुख-दुःख आये उन्हें समतासे सहन करें, आकुल न हों । कर्म छूटनेका अवसर आया है । जीवने जिस प्रकारके कर्म बाँधे हैं, तदनुसार वे उदयमें आते हैं, उनसे घबरायें नहीं, समता और क्षमा धारण करें।
__यहाँ आनेका थोड़ा अवकाश निकालकर यहाँ आ सकें तो बहुत लाभ होगा। समागममें हितकी बात कही जा सकेगी। __सबकी अपेक्षा समझ ही सुख है, नासमझी दुःख है। अतः सही अवसर आया है। आया हुआ दुःख जा रहा है। वह तो जड़ है। देह भी नाशवान है। आत्मा ही शाश्वत है, अजर है, अमर है। इसका बाल भी बाँका करनेमें कोई समर्थ नहीं है, अतः मुझे दुःख हुआ, मुझे रोग हुआ, मुझे व्याधि हुई ऐसा न करें। आत्मा तो इनसे भिन्न है।
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