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पत्रावलि-१ क्षण-क्षण मृत्युको याद करना चाहिये । इस पत्रिकामें लिखी बातें अपने ध्यानमें रखने योग्य है जी।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः
१२८ श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, स्टे.अगास
पौष सुदी ८, रवि, १९८७ प्रारब्धानुसार जो होता है उसे समभावपूर्वक देखते रहना चाहिये । यह पंचमकाल है-कलियुग है। आगे बढ़कर इसकी प्रवृत्तिमें समय गँवाना उचित नहीं है। हर्षशोकके बहावमें न बहकर धैर्य, क्षमा, सहनशीलता, शांति, समतापूर्वक सहना आदि उत्तम गुणोंका आश्रय लेकर धर्मध्यानकी भावना निरंतर कर्तव्य है । मृत्युको याद कर नित्य पवित्र सदाचारमें प्रवर्तन करनेका पुरुषार्थ करना चाहिये जी।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः * १२९ श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, स्टे.अगास पौष वदी ११, बुध, मकरसंक्रांति, १९८७
ता.१४-१-३१ सहज मिला सो दूध बराबर, माँग लिया सो पानी; खेंच लिया सो रक्त बराबर, गोरख बोल्या वाणी. १ सुनो भरत भावी प्रबल, विलखत कहि रघुनाथ;
हर्ष शोक, जीवन मरण, यश अपयश विधि हाथ. २
"नथी धर्यो देह विषय वधारवा, नथी धर्यो देह परिग्रह धारवा." आत्मा अकेला है, अकेला ही आया है और अकेला ही जायेगा। समय-समय पर पर्याय बदलता है। उसे ज्ञानी भव कहते हैं। उसमें विकल्प करनेसे बंध होता है। अतः पर्यायकी ओर दृष्टि न देकर 'आत्माको देखें' ऐसा ज्ञानीका कथन है जी। अपनी कल्पनासे मानना कि ऐसा हो तो ठीक, आदि विकल्पसे क्लेशित होना उचित नहीं। अपनी कल्पनासे कल्याण नहीं होगा।
'मनके कारण सब है।' फिर घबराने जैसा कुछ नहीं है। आये हैं वे तो जा रहे हैं (कर्म)। उसमें क्षमा, सहनशीलता, आनंद अनुभवरूप आँखसे देखें। सत्पुरुषके बोधसे सद्विचाररूप द्वार खोलकर, ज्ञानचक्षुसे अंतर्यामी भगवानके दर्शन करें। ___'समयं गोयम मा पमाए'–समयमात्रका भी प्रमाद कर्तव्य नहीं है। इसे विचारपूर्वक समझनेकी आवश्यकता है जी। 'कर विचार तो पाम' यह ज्ञानीका वचन है सो सत्य है जी। आप तो समझदार हैं। जो सब छोड़ना है वह सब भूल जाने योग्य है और जो स्मरण करने योग्य है उसका विस्मरण हो रहा है। यही कमी है जी।
"उत्तमा स्वात्मचिंता स्यात् मध्यमा मोहचिंतना ।
अधमा कामचिंता स्यात्, परचिंताऽधमाधमा ॥" 'सुज्ञेषु किं बहुना?' 'चतुरकी दो घड़ी और मूर्खका पूरा जन्म।' इस कहावतके अनुसार संक्षेपमें चेतने जैसा है जी। Jain Education national
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