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पत्रावलि-१
७३ नरककी वेदना होती तो सम्मत करता, किन्तु जगतकी मोहिनी सम्मत नहीं होती। ऐसी बात है। दुःख किसे कहें ? हे प्रभु! कुछ लिख नहीं सकता। यह सब मोहनीय कर्मका चरित्र है।
श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, स्टे.अगास
ता.२९-११-२९, कार्तिक वदी, १९८६ __ अशक्ति तो इतनी है कि कोई वस्तु लेने-रखनेमें भी साँस फूल जाती है। प्रभु! कुछ चैन नहीं पड़ता। फिर भी हे प्रभु! श्री परमकृपालुदेव इष्ट सद्गुरुदेवने अंतर-जीवनमें अमृतसिंचन किया है जिससे उस प्रकारसे सर्व प्रसंगमें, समयमें वेदन होता है, वह तो आप प्रभु जानते ही हैं। प्रभु! अंतरमें श्री परमकृपालुके उपदेशसे उदासीनता रहती है। तथा यह जो अपना स्वरूप नहीं है, ऐसे कर्म उदयमें आनेपर चैन नहीं पड़ता; पर वेदना तो देहका स्वभाव है, प्रभु! जो अंतरंग श्री परमकृपालुदेवके बोधसे रंगा है वह अन्यथा हो सकता है क्या? कभी नहीं हो सकता। उसका वेदन तो उसी प्रकारसे चाहे जिस समय होता ही है, प्रभु!
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श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगास,
पौष सुदी ६, १९८६ कालका भरोसा नहीं। लिया या लेगा यों हो रहा है। अतः सबके साथ मैत्रीभाव, करुणाभाव, प्रमोदभाव, मध्यस्थभावसे प्रवृत्ति करें। ऐसी आज्ञा परमकृपालुदेवाधिदेवश्रीकी है जी।
"ज्ञान गरीबी गुरु वचन, नरम वचन निर्दोष;
इनकूँ कभी न छांडिये, श्रद्धा शील संतोष." हे प्रभु! मिले उसके साथ मिलना और द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावकी स्पर्शनासे जैसे काल बीते वैसे संतोषपूर्वक रहना ऐसी इच्छा है। क्योंकि सोचा हुआ कुछ होता नहीं। 'जा विध राखे राम, ता विध रहिये।' गुरुकृपासे जैसा होना होगा वैसा होकर रहेगा। हमारी तो ऐसी भावना रहती है कि सबका भला हो । हे प्रभु! आप तो यह जानते हैं।
कालका भरोसा नहीं है। मनुष्यभव दुर्लभ है। घबराहट, व्याकुलता आ जाती है। कोई वैराग्यकी बात करनेवाला हो तो अच्छा लगता है। प्रभु! समय बिता रहे हैं । देवाधिदेव परमकृपालु देवकी शरण एक आधार है। उन प्रत्यक्ष पुरुषका बोध हुआ था वे वचन सुनते हैं तब अच्छा लगता है और शांति प्राप्त होती है।
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श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, स्टे.अगास
माघ वदी ८, गुरु, १९८६ मरण है ही नहीं। कल्पनासे, अहंभाव ममत्वभावसे, भ्रांतिसे भूला है। उसे भूलकर सद्गुरुकी आज्ञासे सावधान रहियेगा। जो जा रहा है वह फिरसे भोगना नहीं है। देहमें होनेवाले दुःखसे कुछ
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