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उपदेशामृत जीव क्षण-क्षण, समय-समय मर रहा है, उसमेंसे जैसे भी आत्महित, कल्याण हो ऐसा इस संसारमें कर लेना चाहिये, यह आत्मार्थ और कल्याणका मार्ग है। संसारके स्वार्थमें पूर्वके उदयसे जो काल व्यतीत होता है उसमेंसे सत्पुरुषार्थकी ओर वृत्तिको ले जाना है, संलग्न करना है। परमार्थ जो भी हो सके वह कर्तव्य है।
१०५ श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, स्टे.अगास
___ मार्गशीर्ष सुदी ३, शनि, १९८५ सारा लोक त्रिविध तापसे जल रहा है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावके अनुसार स्पर्शन, जीवात्माको सर्जित हो तदनुसार, होता है। किसीका सोचा हुआ नहीं होता। भाविक समदृष्टि जीवात्माको क्षेत्र-स्पर्शनासे, अवसर अनुकूलतासे चित्तसमाधि-आत्महित कर्तव्य है। जागृति रखकर पुरुषार्थ कर्तव्य है जी। किसी बातसे घबराना नहीं है। जैसे चित्तकी प्रसन्नता रहे वैसे कर्तव्य है जी। साता-असाता जीवात्माको जो क्षेत्र-स्पर्शनासे होनी सर्जित है वैसे होगी। इसमें किसीका सोचा हुआ नहीं होता, ऐसा सोचकर समाधि, शांतिमें रहना ही योग्य है ऐसा समझमें आता है जी।
१०६ श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, स्टे.अगास
फाल्गुन वदी ११, १९८५ दोपहरमें भोजनके बाद कुछ भी अच्छा नहीं लगता, जिससे वनमें भाग जाना होता है। आम्रवृक्षकी छायामें जाकर सोते सोते श्रवण करनेका रखा है। चाहे जो हो, समयको इसी लक्ष्यमें बिताना और यथाशक्य पुरुषार्थ करनेमें भूल नहीं करना ऐसा सोचकर शुभ निमित्तमें भावना रखकर प्रवृत्ति होती है। वनमें जाते हैं वहाँ भी पाँच-पच्चीस दूसरे लोग आ पहुँचते हैं।
सत्पुरुषके वचनोंका स्मरण मधुर लगता है। अन्यत्र कहीं भी मन नहीं लगता। पूरे दिन वाचन वाचन करवाना और श्रवण श्रवण करना तथा रोग, व्याधि, जराके निमित्तोंमें जाते चित्तको अन्यत्र मोड़ना, ऐसी वृत्ति रहती है जी।
१०७ श्रीमद राजचंद्र आश्रम, स्टे.अगास,
ज्येष्ठ सुदी १५, शनि, १९८५ गुरुके नामसे जीव ठगा गया है। जिस पर प्रेम ढुलना चाहिये, वहाँ नहीं ढुल रहा है और सत्संगमें, समागममें जहाँ दृष्टि पड़ी वहाँ प्रेम ढोल देता है। इससे असातनाका दोष लगता है और जीव पागल भी हो जाता है। तथा मोहनीय कर्म बना रहता है जिससे ज्ञानावरणीय कर्म आवरण करता है। मोहनीय कर्म जीवको भान नहीं होने देता। ___ "मात्र दृष्टिकी भूल है" जिसके पूर्ण भाग्य होंगे उसीकी दृष्टि इस दुषम कालमें बदलेगी। वैसे जीव मोहनीय कर्मके कारण धोखा खा जाता है, जैसे कि पिता, माता, भाई, कुटुंब, देहको अपना मानता है। यों कहता है कि मेरे नहीं है, किन्तु मोहनीय कर्मके नशेके कारण जीव भटक जाता है। इन सबसे मैं भिन्न हूँ। मेरा स्वरूप ज्ञान-दर्शन-चारित्र है, उसे जानना, देखना और उसमें स्थिर
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